Opinion: वर्ष 2024 की तीन और चार जुलाई। को कजाखिस्तान की राजधानी अस्ताना में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के 24वें सालाना शिखर सम्मेलन आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं शिरकत नहीं की। सन 2017 में भारत और पाकिस्तान ने एससीओ की सदस्यता ग्रहण की थी। तब से पहला अवसर है कि जब प्रधानमंत्री एससीओ के वार्षिक शिखर सम्मेलन में स्वयं शिरकत नहीं की है।
भारतीय संसद का पहला अधिवेशन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्थान पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एससीओ के 24वें शिखर सम्मेलन में भारत की ओर से प्रतिनिधित्य किया। एससीओ शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी के उपस्थित न होने के पीछे जो कारण बताया जा रहा है, वो यह है कि एससीओ शिखर सम्मेलन के दौर में ही वर्ष 2024 के आम चुनाव के बाद भारतीय संसद का पहला अधिवेशन आयोजित हुआ। अतः इस संसदीय अधिवेशन में नरेंद्र मोदी की उपस्थिति को अति आवश्यक करार दिया गया, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी इस सम्मेलन में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा सके। कुछ विश्लेषकों का विचार है कि मोदी ने सोचे समझे ढंग से इस सम्मेलन से अपनी दूरी बनाए रखी।
2023 में अध्यक्ष था भारत
हालांकि विगत वर्ष सन 2023 में एससीओ का अध्यक्ष भारत था और भारत में आयोजित 23वें एससीओ शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता भारत ने की थी। इन विश्लेषकों का कहना है क्योंकि यह संगठन जिसे चीन और रूस की संयुक्त कूटनीतिक पहल द्वारा स्थापित किया गया है वस्तुतः पश्चिम देशों के विरोध में सनद संगठन है। भारत एक गुटनिरपेक्ष राष्ट्र है और विश्व पटल पर अपनी विदेश नीति का शानदार संतुलन बनाए रखने के लिए नरेंद्र मोदी ने कूटनीतिक तौर पर एससीओ से अपनी स्वयं की दूरी बनाई है।। अतः विदेश मंत्री को इस सम्मेलन में शिरकत के लिए भेजा गया।
इन पंक्तियों का लेखक इन विश्लेषकों की बात से सहमत नहीं है कि नरेंद्र मोदी कूटनीतिक ढंग से एससीओ से से अपनी दूरी स्थापित कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने समस्त पश्चिम देशों और अमेरिका के कूटनीतिक दबाव का कड़ा मुकाबला करते हुए रूस के साथ भारत के ताल्लुकात को जरा भी नहीं बिगड़ने दिया है। साथ ही रूस से बहुत सस्ता तेल आयात करके भारत की अर्थव्यवस्था को क्षतिग्रस्त होने से किसी हद तक रोक लिया। एससीओ की कवादत में रूस की अग्रणी भूमिका रही है। विश्लेषकों का यह कहना कि नरेंद्र मोदी कूटनीतिक ढंग से एससीओ से अपनी दूरी कायम कर रहे हैं, वस्तुतः बुनियादी तौर पर एक गलत विश्लेषण है।
एससीओ शिखर सम्मेलन में भारत को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया और इसमें शिरकत करने गए भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर को कजाकिस्तान के उप विदेश मंत्री अली वेग बाकावेव स्वयं हवाई अड्डे लेने पर पहुंच गए। जयशंकर ने कजाकिस्तान के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री मूरत नूरतलेऊ से विशिष्ट मुलाकात की और भारत और कजाकिस्तान के मध्य राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक साझेदारी पर विस्तार से विचार विमर्श किया। भारत में आयोजित हुए विगत एससीओ शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीक्योर एससीओ का नारा बुलंद किया था। सिक्योर एससीओ की व्याख्या करते। हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सामूहिक सुरक्षा, घनिष्ठ आर्थिक सहयोग, परस्पर गहन संपर्क, अटूट एकता, पर्यावरण सुरक्षा और संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता के लिए परस्पर सम्मान।
2001 में स्थापना
उल्लेखनीय है कि एससीओ की स्थापना वर्ष 2001 में चीन और रूस द्वारा संयुक्त रूप से पूर्व सोवियत यूनियन के चार मध्य एशियाई देशों किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, और उज्बेकिस्तान के साथ मिलकर की गई थी। एससीओ की स्थापना यूरेशिया क्षेत्र में राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के मकसद को हासिल करने के लिए की गई थी। प्रारंभ में रूस, चीन कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान उज्बेकिस्तान इसके सदस्य देश बने। इसके बाद सन 2017 में पाकिस्तान और भारत ने एससीओ की सदस्यता ग्रहण की। ईरान द्वारा सन 2023 में एससीओ की सदस्यता ली गई। तुर्की एससीओ का स्थाई सदस्य देश नहीं है, किंतु एक डायलॉग पार्टनर के रूप में एससीए में शिरकत करेता रहा है।
इस सम्मेलन में सऊदी अरब भी डायलॉग पार्टनर के तौर पर शामिल हुआ। सन 2024 के एससीओ सम्मेलन में पर्यवेक्षक देशों के तौर प पर अफगानिस्तान और मंगोलिया ने भी हिस्सा लिया। ऐतिहासिक तौर पर देखें तो एससीओ का उदय 1996 में प्रारंभ हुआ था, जबकि रूस, चीन और चार मध्य एशियाई देशों के मध्य सीमाओं सीमाओं को लेकर एक समझौता किया गया था। इसर सीना समझौते को शंघाई फाइव का नाम प्रदान किया गया।
चीन और रूस की पहल पर इस शंघाई फाइव समझौते का विस्तार यूरेशिया क्षेत्र के मित्र देशों के मध्य सहयोग को और अधिक बढ़ाने के लिए किया गया और फिर शंघाई सहयोग संगठन निर्मित हुआ। एससीओ में सदस्य देशों के मध्य व्यापार और सुरक्षा को बढ़ावा प्रदान करने के लिए संगठन की भूमिका को शक्तिशाली बनाने की पेशकश की गई। यह ऐसा दौर था जब सोवियत संघ का पराभव हो चुका था और नकारात्मक नतीजे और अव्यवस्थाओं के प्रति पूरे विश्व में चिंता व्याप्त थी। सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद यह सभी देश एक क्षेत्रीय व्यवस्था को बखूबी कायम करना चाहते थे।
40 फीसदी आबादी एससीओ देशों में
इस वक्त एससीओ के सदस्य देशों में पूरी दुनिया की लगभग 40 फीसदी आवादी निवास करती है। पूरी दुनिया की जीडीपी में एससीओ देशों की भागीदारी तकरीबन 20 फीसदी है। दुनियाभर के तेल रिजर्व का 25 फीसदी हिस्सा इन्हीं देशों के पास विद्यमान है। एससीओ शिखर सम्मेलन में इजराइल-उमास जंग, अफगानिस्तान के हालात और रूस-यूक्रेन युद्ध पर विशेष तौर पर चच्चर्चा की गई। साथ ही एससीओ के सदस्य देशों के मध्य सुरक्षा सहयोग बढ़ाने पर भी गहन विचार विमर्श किया गया। रूस के लिए विशेषकर सम्मेलन बहुत महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि यूक्रेन में नाटो के विरुद्ध लड़ता हुआ रूस अपने सहयोगियों के साथ और घनिष्ठ रूप से जुड़ना चाहता है।
विशेषकर चीन के साथ जिसके साथ उसकी अंतरविरोध से परिपूर्ण मित्रता है, क्योंकि चीन अपनी विस्तारवादी फितरत के कारण रूस के ब्लाडोवोस्टक इलाके पर तकरीबन उस तरह से अपने स्वामित्व का दावा पेश करता रहा है, जिस तरह वह भारत के अरुणाचल पर अपना दावा पेश करता है। ऐतिहासिक तौर पर जब दोनों ही देश साम्यवादी थे, तब भी उनके बीच सीमा विवाद को लेकर 1968 में भीषण युद्ध लड़ा गया था। आजकल जारी यूक्रेन बनाम रूस युद्ध के दौर में चीन काफी बड़ी मात्रा में आधुनिकतम हथियारों की आपूर्ति रूस स को कर रहा है, लेकिन इसके बावजूद भी दोनों देशों में बुनियादी अंतरविरोध सीमा विवाद को लेकर आज भी पहले की त तारह जयम हैं। जिस तरह तरह से भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद को लेकर कूटनीतिक और सैन्य वार्ताएं निरंतर जारी रहती हैं, इस तरह से रूस और चीन के मध्य भी सीमा विवाद के निपटारे के लिए कूटनीतिक वार्ताएं चलती रहती है।
सुरक्षा और और व्यापार सहयोग की तमाम घोषणाओं के बावजूद भी एससी ओ का मंचः पर अभी तक एससीओ के बड़े प्रमुख देशों के मध्य उत्पन्न सीमा विवादों का कोई समुचित निदान ढूंढने कामयाब नहीं हो सका है। अतः एससीओ देशों के सम्मेलनों में सामूहिक सुरक्षा स्थापित करने की की बात करना बेमानी हो चली है। एससीओ प्राय ऐलान करता है की चरम पंथ, अलगाय और अतिवाद से सामूहिक तौर पर संघर्ष करना वस्तुतः एससीओ का मकसद है। अलगाव का आज के मुद्दों में सबसे गहरा ताल्लुक भारत और चीन से है। जहांकि एक तरफ चीन के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में शिनजियांग में और और भारत के कश्मीर में अलगाववादी हिंसक तौर पर सक्रिय हैं।
विश्व व्यवस्था को चुनौतीपूर्ण विकल्प
एससीओ के मंच से चीन और रूस मिलकर पश्चिमी देशों की अगुवाई वाली विश्व व्यवस्था को चुनौती पूर्ण विकल्प प्रदान करना चाहते हैं। चौन इसको इंटर सिविलाइजेशन डायलॉग कहकर पुकारता है चीन एशिया के मंच से अपने इस नजरिये को आगे बढ़ना चाहता है। एससीओ में वस्तुतः बड़े शक्तिशाली देश विद्यमान हैं। हालांकि रूस के खाते में अभी तक कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, क्योंकि वह तो अपने सदस्य देशों के मध्य जारी गहन अंतरविरोध हो और विवादों को सुलझाने में एकदम नाकाम साबित हुआ है। भारत और चीन के मध्य जो विवाद चल रहे हैं वह बाकायदा जारी है भारत और पाकिस्तान के मध्य कश्मीर को लेकर जो हिंसक संघर्ष और तल्खी बनी रही है, यह भी दूर होने का नाम नहीं ले रही है और एससीओ इसमें कुछ भी नाहीं कर पा रहा है।
एससीओ को को पश्चिमी मुल्कों के वैकल्पिक संगठन के तौर पर विश्व पटल पर पेश किया गया, किंतु सदस्य देशों के मध्य परस्पर विश्वास बहुत कम है। सदस्य देशों के बीच सहयोग और अपनी क्षमताओं को साझा करने और बड़ी उपलब्धियां हासिल करने के लिए जो यकीन स्थापित होना चाहिए, वह विद्यमान नहीं है। पश्चिमी देश एससीओ को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं है। पश्चिमी देश एससीओ को विस राजनीति में ऐसी शक्ति के रूप तौर पर उसे नहीं देखते जिसकी उन्हें चिंता हो। इतना जरूर है कि चीन, रूस और ईरान के बीच बढ़ते हुए घनिष्ठ रिश्तों को वह लेकर पक्षिमी देश बेहद चिंतित है।
सार्थकता सिद्ध करनी होगी
एससीओ को अगर वास्तव में कारगर बनाना है और और विश्व पटल पर अपनी सार्थकता सिद्ध करनी है तो फिर इसके सदस्य देशों को आपसी अंतरविरोधों को और सीमा विवादों को शांतिपूर्ण कूटनीतिक वार्ताओं द्वारा यथाशीघ्र हल कर लेना होगा ताकि परस्पर सहयोग, सामूहिक सुरक्षा और सशक्त व्यापार के समस्त संकल्प साकार रूप से व्यवहार में परिणत हो सके अन्यथा एससीओ को एक नाकाम और नकारा संगठन करार देने में ज्यादा वक्त पश्चिम को नहीं लगेगा। इस अंतरराष्ट्रीय पुनीत कार्य की जिम्मेदारी सबसे अधिक एससीओ के संस्थापक देशों की है। इसको को यदि सफल बनाना है तो भी चीन को अपनी विस्तारवादी रणनीति का संपूर्ण परित्याग करना होगा ताकि सदस्य देशों में वह विश्वास जाग सके कि वास्तव में ही अब सदस्य देशों में परस्पर सहयोग और विश्वास उत्पन्न हो सकेगा।
प्रभात कुमार रॉय : (लेखक विदेश मामले के जानकार हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)