राज कुमार सिंह : सत्तापक्ष और विपक्ष की जीत-हार से इतर मतदाताओं ने ज्यादातर दलबदलुओं को नकार कर भी बड़ा संदेश दिया है। सत्ता को ही राजनीति का पहला और अंतिम सच मानने वाले नेता चुनाव जीतने के लिए दलबदल में संकोच नहीं करते। दलों को भी दलबदलुओं पर दांव लगाने से परहेज नहीं, पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को मतदाताओं का आभारी होना चाहिए, जिन्होंने ज्यादातर दलबदलुओं को नकार दिया। 

अठारहवीं लोकसभा के चुनाव
दल बदल की बीमारी किस तरह नासूर बनती जा रही है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अठारहवीं लोकसभा के चुनाव में डेढ़ सौ से भी ज्यादा दलबदलुओं पर दलों ने दांव लगाया। भाजपा खुद को विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बताती है, पर उसीने सौ से भी ज्यादा दलबदलुओं को टिकट दिया। उत्तर प्रदेश में यह खेल बड़े पैमाने पर खेला गया। विभिन्न दलों ने 30 दलबदलू चुनाव मैदान में उतारे, जिनमें से 12 हार गए। बसपा ने 11 दलबदलुओं को टिकट दिया। जीतना तो बहुत दूर, सभी तीसरे स्थान पर रहे। पिछली बार 10 लोकसभा सीटें जीतने वाली बसपा का इस बार खाता तक नहीं खुला। वैसे सपा द्वारा चुनाव मैदान में उतारे गये नौ में से सात और भाजपा द्वारा टिकट दिल्ली के तीन ओर बसे हरियाणा में भाजपा ने दिये गये तीन में से दो दलबदलू जीत भी गए। दलबदलू अशोक तंवर पर दांव लगाया, पर सिरसा के मतदाताओं ने उन्हें नकारते हुए कांग्रेस की कुमारी सैलजा को चुना।

तृणमूल कांग्रेस और आप से होते कमल थाम लिया
नेहरू परिवार के करीबी माने जाने वाले तंवर खुद कभी हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से टकराव के चलते तंवर ने 2019 में कांग्रेस छोड़ी। पहले अपना मोर्चा बनाया। फिर तृणमूल कांग्रेस और आप से होते हुए ठीक चुनाव से पहले तंवर ने कमल थाम लिया। हरियाणा के मंत्री रणजीत चौटाला चौधरी देवीलाल के बेटे हैं। भाई ओम प्रकाश चौटाला से पटरी न बैठने पर कांग्रेस में गये थे। विधायक और मंत्री भी रहे। पिछली बार निर्दलीय विधायक बन कर भाजपा की सरकार में मंत्री बने। इस बार भाजपा ने हिसार से उम्मीदवार भी बना दिया, पर कांग्रेस के जय प्रकाश से हार गए। वैसे कांग्रेस से लाकर कुरुक्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार बनाए गए नवीन जिंदल जीत भी गए।

परनीत कौर को तीसरे स्थान पर रखा
पंजाब की आन-बान-शान की बड़ी चर्चा होती है, पर शायद राजनेताओं का उससे ज्यादा सरोकार नहीं। कैप्टन अमरेंद्र सिंह कांग्रेस द्वारा 2021 में अपमानजनक तरीके से मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के कुछ अरसा बाद ही भाजपा में चले गए थे। उनकी सांसद पत्नी परनीत कौर लोकसभा चुनावों से कुछ ही पहले गयीं। भाजपा ने टिकट भी दे दिया, पर पटियाला के मतदाताओं ने कांग्रेस की केंद्र सरकार में मंत्री भी रह चुकीं परनीत कौर को तीसरे स्थान पर रखा। परनीत कौर 2014 में भी पटियाला से चुनाव हारी थीं। तब भी डॉ धर्मबीर गांधी ने ही हराया था। तब गांधी आप के उम्मीदवार थे, जबकि इस बार कांग्रेस के।

केंद्र में राज्य मंत्री बना दिए गए हैं
लुधियाना में भी भाजपा ने तीन बार के कांग्रेसी सांसद रवनीत सिंह बिट्टू पर दांव लगाया, पर मतदाताओं ने नकार दिया और पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिग सांसद बन गए। बिट्ट के लिए संतोष की बात है कि चुनाव हारने के बाद भी केंद्र में राज्य मंत्री बना दिए गए हैं। भाजपा की रणनीति उन्हें पंजाब की राजनीति में अपने सिख चेहरे के रूप में पेश करने की है। जालंधर का उदाहरण और भी गजब है। कांग्रेस सांसद की मृत्यु के बाद वहां उप चुनाव होने पर आप ने कांग्रेस पार्षद रहे सुशील कुमार रिंकू पर दांव लगाया। मतदाताओं ने जिता भी दिया, पर इस बार चुनाव से पहले पाला बदल कर रिंकू भाजपाई हो गए। 

दलबदलू पवन कुमार टीनू पर दांव लगाया
शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन टूटने के बाद पहली बार अकेले लोकसभा चुनाव लड़ रही भाजपा ने टिकट भी दे दिया, लेकिन मतदाताओं ने कांग्रेस उम्मीदवार पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को जिता दिया। जालंधर से आप ने भी अकाली दल के दलबदलू पवन कुमार टीनू पर दांव लगाया था। झारखंड में ईडी द्वारा गिरफ्तारी के चलते मुख्यमंत्री पद से हेमंत सोरेन के इस्तीफे के बावजूद जब सरकार नहीं गिरी, तब भाजपा ने उनकी भाभी सीता सोरेन से दलबदल करवाया। सीता सोरेन को दुमका से लोकसभा टिकट भी दिया, पर मतदाताओं ने नकार दिया। बिहार में वाल्मीकि नगर से टिकट न मिलने पर भाजपा छोड़ राजद में शामिल हुए दीपक यादव भी जदयू उम्मीदवार सुनील कुमार से हार गए। मुजफ्फरपुर सीट से भाजपा सांसद अजय निषाद इस बार कांग्रेस के टिकट पर लड़े, पर मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया। दिलचस्प यह है कि मतदाताओं ने जिन भाजपाई उम्मीदवार राज भूषण चौधरी को जिताया, वह भी मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी से दलबदल कर आए थे। आगामी विधानसभा चुनावों के सामाजिक गणित के मद्देनजर राज भूषण चौधरी को केंद्र में राज्य मंत्री भी बना दिया गया है।

केंद्र में मंत्री और केरल के मुख्यमंत्री रह चुके
बिहार विधानसभा चुनाव में वे राजग को कितना लाभ पहुंचा पाएंगे, यह तो चुनाव के बाद ही पता लगेगा। एके एंटनी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। केंद्र में मंत्री और केरल के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, पर उनके बेटे अनिल एंटनी अब भाजपा में हैं। उन्हें पथानामथिट्टा से उम्मीदवार भी बनाया गया, पर कांग्रेस उम्मीदवार एटो एंटनी से हार गये। राजस्थान की नागौर लोकसभा सीट पर भाजपा ने पूर्व कांग्रेस सांसद ज्योति मिर्धा पर दांव लगाया, लेकिन वह राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के निवर्तमान सांसद हनुमान बैनीवाल से हार गई। चुरू से राहुल कस्वां पिछली बार भाजपा के टिकट पर सांसद बने थे। 

देवेंद्र झाझड़िया पर दांव लगाया
इस बार भाजपा ने पैरालंपिक गोल्ड मेडलिस्ट देवेंद्र झाझड़िया पर दांव लगाया तो राहुल कांग्रेस उम्मीदवार बन गए और जीत भी गये। तृणमूल कांग्रेस से वापस लौट कर बैरकपुर से भाजपा उम्मीदवार बने अर्जुन सिंह इस चुनाव में तृणमूल के पार्थ भौमिक से हार गए। पश्चिम बंगाल में तृणमूल से भाजपा में शामिल हुए पांच बड़े दलबदलुओं में से मात्र एक सौमेंदु अधिकारी ही जीत पाए। महाराष्ट्र में चाचा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तोड़ कर एकनाथ शिंदे सरकार में उप मुख्यमंत्री बने अजित पवार अपनी पत्नी सुनेत्रा तक को चुनाव नहीं जितवा पाए और अब उन्हें राज्यसभा में भेजने की कोशिश में हैं। 

चुनावी सफलता की दर लगातार गिर रही है
यह सूची बहुत लंबी बन सकती है, पर सबक यही है कि दलबदलुओं को सबक सिखाने का संकल्प खुद मतदाताओं को लेना होगा। सत्ता के खिलाड़ी राजनीतिक दलों और नेताओं से सुधरने की उम्मीद बेमानी है। सुखद संकेत यह है कि दलबदलुओं की चुनावी सफलता की दर लगातार गिर रही है। एक अध्ययन के मुताबिक यह दर 2014 और 2019 में क्रमशः 66.7 और 56.5 थी, जो 2024 में 32.7 रह गयी है यानि मतदाताओं ने दो-तिहाई दलबदलुओं को नकार दिया। इस आंकड़े को देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि ठीक चुनाव से पहले दल बदल लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। चुनाव के बाद भी सरकार बनाने के लिए की जाने वाली जोड़-जोड़ व पाला बदल पर लगाम की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)