अरुण कुमार कैहरबा : खून के रिश्तों की सीमाएं जाति, धर्म-संप्रदायों की श्रेष्ठता को जन्म देते हुए अनेक संकीर्णताओं को जन्म देती हैं। इस श्रेष्ठता ग्रंथि का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। फिर भी इसके कारण इतिहास में अनेक युद्ध हुए हैं। हिटलर जैसे कट्टर लोगों ने फासीवाद जैसे क्रूर विचार को आगे बढ़ाते हुए लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। दूसरों का खून बहाने की भावना के विपरीत रक्तदान अहिंसा और सत्य के विचार को आगे बढ़ाता है। रक्तदाता दुनिया को बांटने-तोड़ने की बजाय जोड़ने का संदेश देता है। मानवता के अनूठे सिपाही बनकर रक्तदाता रक्त नालियों या सड़कों पर बहने की बजाय मनुष्य की नाड़ियों में बहाने का संदेश देते हैं।
आखिर रक्तदाता दिवस के लिए यही दिन क्यों चुना गया
रक्तदान को बढ़ावा देने और रक्तदाताओं का सम्मान करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2004 में हर वर्ष 14 जून को रक्तदाता दिवस मनाने का निर्णय लिया था। सवाल यह है कि आखिर रक्तदाता दिवस के लिए यही दिन क्यों चुना गया। दरअसल यह दिन प्रसिद्ध जीव विज्ञानी एवं भौतिकीविद कार्ल लैंडस्टाइनर का जन्मदिन (14 जून, 1868) है। लैंडस्टाइनर ने रक्त का ए, बी, एबी और ओ अलग-अलग रक्त समूहों में वर्गीकरण कर चिकित्सा विज्ञान में अहम योगदान दिया था। शरीर विज्ञान में उनके योगदान के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उनके जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए यह दिन रक्तदाता दिवस के रूप में चुना गया। मकसद यही था कि रक्त का व्यापार ना हो।
स्वास्थ्य संगठन ने रक्तदान नीति की नींव डाली
इसके साथ ही स्वास्थ्य संगठन ने शत- प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान नीति की नींव डाली, लेकिन अब तक लगभग 49 देशों ने ही इस पर अमल किया है। तंजानिया जैसे देश में 80 प्रतिशत रक्तदाता पैसे नहीं लेते। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार ही भारत में प्रतिवर्ष 1 करोड़ यूनिट रक्त की जरूरत होती है, लेकिन उपलब्ध 75 लाख यूनिट ही हो पाता है। करीब 25 लाख यूनिट रक्त के अभाव में हर साल कितने ही मरीज दम तोड़ देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक राजधानी दिल्ली में हर साल 3 लाख 50 हजार रक्त यूनिट की आवश्यकता रहती है, लेकिन स्वैच्छिक रक्तदाताओं से इसका महज 30 फीसदी ही जुट पाता है। जो हाल दिल्ली का है वही शेष भारत का है। विशेषज्ञों के अनुसार भारत में कुल रक्तदान का केवल 59 फीसदी रक्तदान स्वैच्छिक होता है।
बेटी के विवाह में कन्यादान करने से पहले रक्तदान की रस्म अदा की
भारत में अनेक शख्सियतें हैं, जो रक्तदान की अलख जगा रही हैं। भारतीय सेना में ऑनरेरी कैप्टन के पद से सेवानिवृत्त हुए हरियाणा के सुरेश सैनी 144 बार रक्तदान कर चुके हैं। यही नहीं उन्होंने 97 बार प्लेटलेट और एक बार प्लाज्मा भी दान किया है। रक्तदान, प्लेटलेट और प्लाज्मा दान के मामले में 242 का आंकड़ा छूने वालों में वे देशभर के गिने-चुने नामों में से एक हैं। उन्होंने अपनी बेटी के विवाह में कन्यादान करने से पहले रक्तदान की रस्म अदा की।
पुलिस अधिकारी डॉ. अशोक वर्मा, रेडक्रॉस करनाल में जिला प्रशिक्षण अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए एमसी धीमान भी ऐसे ही व्यक्ति हैं, जो खुद रक्तदान करते हुए भी रक्त की जरूरत पूरी करने में लोगों का स्वैच्छिक सहयोग करते हैं। संकट के समय तो रक्तदान की अहमियत और बढ़ जाती है। चाहे कोरोना के संकट का समय है या युद्ध या कोई अन्य प्राकृतिक एवं मानवीय आपदा। उस समय रक्तदाता की अहमियत और ज्यादा बढ़ जाती है। हम सभी को मिलजुल कर विश्व शांति, सद्भाव और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए रक्तदान को प्रेरित करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है. ये उनके अपने विचार है)