खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घंटी है। आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती। इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है, गरीबी मिटानी है और किसानों की हालत में सुधार करके उनका जीवन स्तर ऊपर उठाना है तो सबसे पहले कृषि क्षेत्र की हालत सुधारना सबसे आवश्यक है। देश की आधी से ज्यादा आबादी कि स्थिति सुधारे बिना देश का विकास नहीं हो सकता है, इसलिए जरूरत है इसकी महत्ता को कागज़ों से निकाल कर किसानों के बीच ले जाने की।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसान की स्थिति देखकर देश के तमाम विकास के दावे बेमानी लगने लगते हैं। इसका एक कारण सरकार द्वारा किसानों पर जितना ध्यान देना चाहिए, उतना नहीं देना है। मालूम हो,सरकार ने किसानों को 2022 तक उनकी आय दो गुना करने का वादा किया था। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लागत का डेढ़ गुना करने का वादा किया था, लेकिन वादे केवल वादे ही बनकर रह गए। गौर करने वाली बात यह है कि हमारे देश में अब भी किसानों की औसत आय इतनी कम है इससे उनका भरण-पोषण नहीं हो सकता।
यह विडंबना ही कही जाएगी कि भारत में अन्नदाताओं की इनकम चपरासी से भी कम है। सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद देश के किसानों की हालत में कोई क्रांतिकारी सुधार नहीं दिख रहा है। उनकी इस बदहाली के पीछे कहीं न कहीं सरकार की नीतियां ही जिम्मेदार हैं जहां कृषि को कभी भी देश के विकास की मुख्यधारा का मानक समझा ही नहीं गया। बीज और खाद आदि के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज भी कोई विशेष सरकारी सुविधा नहीं है। यही वजह है कि किसानों के सामने हमेशा संकट बना रहता है।
प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से फसल बर्बाद हो गई तो खेती के लिए लिया गया कर्ज न चुका पाने के कारण किसानों के सामने रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं और निराशा आत्महत्या तक ले जाती है। वहीं जरूरत से ज्यादा उत्पादन भी आफत का कारण बन जाता है, क्योंकि उसे उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है और उसे उन्हें औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। यदि किसान का उत्पादन अधिक हो जाए तो भी सरकार हाथ खड़े कर देती है और कम रहे तब भी सरकार को परेशानी होने लगती है(
भारत में तकरीबन 60 फीसदी आबादी कृषि से जुड़ी है। सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने के लिए तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं। फिर भी उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। पिछले डेढ़-दो दशकों से जो भी सरकारें बनी, उसने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की। बेशक कृषि क्षेत्र के लिए कई परियोजनाएं शुरू की गईं, लेकिन उनका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं किया गया। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी न जाने कई योजनाएं चल रही हैं। इसके अलावा भारत निर्माण, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत काफी क्षेत्रों को सिंचित करने का प्रस्ताव भी है, लेकिन सही तरीके से क्रियान्वयन न होने की वजह से इनका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है।
अक्सर यह बात कही जाती है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है, लेकिन चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार नहीं मिटा पाती कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भारत में ही है। यह एक सच्चाई है जिसे कोई सरकार स्वीकार करना नहीं चाहेगी। भले, ऊंची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना हो, मगर खाद्य असुरक्षा को लेकर कृषि प्रधान देश की ऐसी दुर्दशा होना निश्चित ही गंभीर बात है।
गौरतलब है कि भारत की आबादी एक अरब 41 करोड़ से ऊपर जा चुकी है। द मिलेनियम प्रोजेक्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि सन 2040 तक भारत की आबादी लगभग एक अरब 57 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में सभी लोगों को भोजन मुहैया करना एक बड़ी चुनौती होगी। हकीकत यह है कि अगर इस देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो देश में अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी। भुखमरी का यह तस्वीर कृषि संकट का ही एक चेहरा है। असल में कृषि क्षेत्र जिस घोर संकट में फंसा हुआ है, उसका एक बड़ा कारण किसानों की आत्महत्याओं में दिखाई पड़ रहा है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कृषि प्रधान देश भारत में कृषि और किसान कितनी मुश्किलों से गुजर रहे हैं, यह जानने के लिए तो किसी अध्ययन या शोध की जरूरत सरकार को नहीं होनी चाहिए। बरसों से देश के विभिन्न हिस्सों से किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं, तो दूसरी तरफ तेजी से खेती से विमुख हो रहे लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। इन हालात में, खासकर तब जबकि बेलगाम आबादी के लिए मंडराते खाद्यान्न संकट के मद्देनजर सरकार एक और हरित क्रांति की जरूरत पर जोर दे रही है। अगर भारतीय कृषि और किसान को गहरे संकट से उबारना है, तो कुछ बड़े और कड़े फैसले सरकार को करने पड़ेंगे।
भले ही पिछले दशक में कृषि क्षेत्र के लिए ऋण मेंचाहे जितना इजाफा किया गया हो लेकिन आज भी छोटे और सीमांत किसान अपनीजरूरतों की पूर्ति के लिए सेठ-साहूकारों की ही मदद लेते हैं। ऐसा लगता है कि बैंकों की ऋण सुविधाओं का अधिकतर लाभ भी वही किसान उठा रहे हैं जो कर्ज चुकाने की स्थिति में हैं। यदि किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिति और भयानक हो सकती है। किसानी का पूरा काम इतना श्रम आधारित है कि इसमें शरीर तोड़ने वाले श्रम की जरूरत पड़ती है। किसान प्रकृति से भी लड़ता है क्योंकि प्रकृति कभी भी उसके नियम से चलती नहीं है और सरकार के द्वारा बनाई गई तमाम व्यवस्थाएं जो उसके प्रतिकूल जा रही हैं, किसान को उससे भी लड़ना होता है।
साफ है, लागत खर्च बढ़ने से देश के किसानों की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। यहां तक उन्हें अपनी फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। यही वजह है कि अब किसानों के लिए खेती लाभप्रद व्यवसाय नहीं रह गई है और खेती से मोहभंग के कारण वे लगातार रोजगार के वैकल्पिक उपायों को अपना रहे हैं। अगर किसानों और कृषि के प्रति यही बेरुखी रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम खाद्य असुरक्षा की तरफ तेजी से बढ़ जाएंगे। जोकि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत है। खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घंटी है। आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती।
इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है, गरीबी मिटानी है और किसानों की हालत में सुधार करके उनका जीवन स्तर ऊपर उठाना है तो सबसे पहले कृषि क्षेत्र की हालत सुधारना सबसे आवश्यक है। देश की आधी से ज्यादा आबादी कि स्थिति सुधारे बिना देश का विकास नहीं हो सकता है, इसलिए जरूरत है इसकी महत्ता को कागज़ों से निकाल कर किसानों के बीच ले जाने की।
रवि शंकर (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)