AMU Minority Status SC Decision: सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने 4-3 के बहुमत से 1967 के उस निर्णय को खारिज कर दिया है जिसमें AMU को अल्पसंख्यक दर्जा देने से मना किया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर विचार करने के लिए तीन जजों की एक विशेष बेंच का गठन किया है, जो अल्पसंख्यक दर्जा देने के मानदंडों को दोबारा परिभाषित करेगी।
सुप्रीम कोर्ट में जजों की राय बंटी, बनी तीन जजों की बेंच
AMU के मामले में जजों की राय बंटी हुई है। चीफ जस्टिस (CJI) और जस्टिस पारदीवाला इस निर्णय पर सहमत थे, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने असहमति जताई। बहुमत से आए इस फैसले के बाद अब तीन जजों की बेंच AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का फिर से मूल्यांकन करेगी।
क्यों उठा AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का विवाद?
AMU की स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान ने की थी, जिसे बाद में 1920 में यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला। 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि AMU को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसे केंद्र सरकार के अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था। इस फैसले ने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर सवाल खड़े कर दिए थे, जिसके बाद से ही यह मुद्दा विवादों में रहा है।
अब नए सिद्धांतों के आधार पर होगा फैसला
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की बेंच ने बहुमत से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे से जुडें।1967 के अजीज बाशा केस के पुराने फैसले को खारिज कर दिया गया। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ समेत चार जजों ने इस ऐतिहासिक मामले में यह फैसला सुनासया। इससे एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर दोबारा विचार करने का रास्ता साफ हो गया है। अब नए सिद्धांतों के आधार पर किया जाएगा फैसला।
संविधान के अनुच्छेद 30 की के तहत सुनाया फैसला
चीप जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जेबी पारदीवाला, और मनोज मिश्रा ने मिलकर अपनी राय जाहिर की। इन चारों जजों ने ने माना कि एक संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा तय करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए। सीजेआई चंद्रचूड़ ने स्पष्ट किया कि एक अल्पसंख्यक संस्थान के लिए यह जरूरी है कि उसे अल्पसंख्यक समूह द्वारा स्थापित और संचालित किया जाए। कोर्ट ने यह भी माना कि संविधान के बनने से पहले की संस्थाएं भी अनुच्छेद 30 के तहत समान सुरक्षा का अधिकार रखती हैं। इस आधार पर एएमयू का मामला भी दोबारा विचाराधीन हो सकता है।
अल्पसंख्यक दर्जा का आकलन कैसे किया जाएगा
इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा कि एक संस्थान का अल्पसंख्यक चरित्र केवल इसे संसद द्वारा स्थापित किए जाने के आधार पर तय नहीं हो सकता। कोर्ट ने कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का आकलन दूसरे कई पहलुओं के साथ-साथ इसके स्थापना और मकसद को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि यदि किसी संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा मिल जाता है, तो उसे अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सीट आरक्षित करने की जरूरत नहीं होगी।
तीनों जजों ने फैसले पर जताई असहमति
जस्टिस सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता, और सतीश चंद्र शर्मा ने इस निर्णय पर असहमति जताई। तीनों जजों ने तर्क दिया कि 1981 में दो जजों की बेंच ने इस मामले को संविधान पीठ को सौंपने का जो निर्णय लिया था, वह कानूनी तौर पर गलत था। यह मामला पहले तीन जजों की बेंच को भेजा जाना चाहिए था, और बाद में संविधान पीठ को।
केंद्र सरकार की ओर से क्या दी गई दलीलें
केंद्र सरकार की ओर से वकीलों ने यह तर्क दिया कि एएमयू का गठन एक "राष्ट्रीय महत्व" की संस्था के रूप में किया गया है। उनका मानना है कि ऐसी संस्था का अल्पसंख्यक दर्जा नहीं होना चाहिए। सरकार ने कहा कि एएमयू का उद्देश्य समाज के विभिन्न वर्गों के विकास में योगदान देना है, और इसलिए इसे अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं मिलना चाहिए।
इलाहाबाद हाई कोर्ट का 2005 का फैसला
1981 में एक संशोधन के जरिए AMU को अल्पसंख्यक दर्जा देने की कोशिश की गई, लेकिन 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस संशोधन को असंवैधानिक करार दिया। इसके बाद केंद्र सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। तब से लेकर आज तक इस पर निर्णय की प्रतीक्षा हो रही थी।
अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों पर होगा असर
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दूरगामी प्रभाव डाल सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि नए मानदंडों को इस प्रकार तय किया जाना चाहिए कि संस्थानों का अल्पसंख्यक स्वरूप प्रभावित न हो। अब देशभर के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की ओर भी सभी की नजरें हैं।