Opinion: चातुर्मास आत्मशुद्धि का पर्व एवं संस्कार शुद्धि का सुअवसर है। चातुर्मास शब्द वर्षा के चार महीनों के लिए! प्रयुक्त किया जाता है। जैन धर्मशाखों में इसे वर्षावास कहा गया है। वस्तुतः चातुर्मास में बहिर्यात्रा बंद और अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है। सनातन संस्कृति एवं जैन धर्म में चातुर्मास यानी चौमासे में आहार-शुद्धि व एकांत तपश्चर्या का विशेष महत्व व माहात्म्य माना गया है। हिंदू वार्षिक पंचांग के अनुसार चातुर्मास आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होता है और इसका समापन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी को होता है।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध-सात्विक भोजन
गौरतलब है कि वर्षायोग के दौरान पर्यावरण, भोजन व जल इत्यादि में हानिकारक बैक्टीरिया की तादाद स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है, तो दूसरी ओर हमारी जठराग्नि मंद पड़ जाती है, इसलिए धार्मिक अनुष्ठान व आध्यात्मिक प्रयोजन के साथ- साथ चातुर्मास में शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध-सात्विक भोजन करना अत्यंत लाभकारी है। इन दिनों पुरुषोत्तम मास चल रहा है, धार्मिक परिप्रेक्ष्य में इसे अधिमास भी कहते हैं। हर तीन वर्ष के पश्चात इस मास की आवृत्ति होती है। आध्यात्मिक नजरिए से पुरुषोत्तम मास का विशेष महात्म्य है। गीता में अध्याय पंद्रह पुरुषोत्तम योग पर आधारित है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने सगुण भक्तियोग की महत्ता और व्रत-उपवास तपश्चर्या का विस्तार से वर्णन किया है।
आस्था और समर्पण से लबरेज
योगेश्वर भक्तियोग का बहुत सुंदर वर्णन करते हुए कहते हैं कि ज्ञान व्यक्ति में मैं-पन यानी कर्ता का भाव भरता है, जबकि सगुण प्रेमाभक्ति मनुष्य को श्रद्धा, आस्था और समर्पण से लबरेज करके मैं-पन अर्थात 'मैं करता हूं' के भाव से मुक्ति प्रदान करती है। ज्ञानी के अंतःकरण में गंगा का प्रवाह सदैव एक सुनिश्चित दिशा में प्रवाहित होता है, जबकि भक्त के भीतर गंगासागर का ज्वार-भाटा आता रहता है। कहने का अभिप्राय है कि भक्ति अभिमान व अहंकार से मुक्त करती है। ज्ञानी कहता है, 'सोहऽम ! मैं सर्वशक्तिमान आत्मा हूं।'
जबकि भक्त कहता है, 'हे योगेश्वर, जड़-चेतन में यानी प्रकृति के जरें-जरें में तुम्हारी चेतना का नूर समाया हुआ है। हे माधव तुम स्वामी हो, मैं सेवक हूं।' मेरे प्रभु। मैं आपके शरणागत हूं, आपका उपवास करता हूं, असलियत में आध्यात्मिकता के तहत उपवास मात्र भोजन का परित्याग नहीं है, बल्कि उपवास का अर्थ है- निकट वास करना। असल में व्रत-उपवास व एकनिष्ठ होकर मौन-साधना में लीन रहते हुए परमात्मा रूपी गंतव्य को हासिल करना ही चातुर्मास का परम उद्देश्य है। दरअसल, व्रत-उपवास मन की चंचलता को साधते हुए आत्मनिष्ठ होने की वैज्ञानिक पद्धति है। मन की चंचलता क्षीण होते ही साधक को परमात्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है।
सूक्ष्म भाग से मन का निर्माण
छान्दोग्य उपनिषद में मन के निर्माण की प्रक्रिया को विधिपूर्वक समझाते हुए कहा गया है कि मनुष्य द्वारा खाया हुआ अन्न तीन भागों में बंट जाता है। अन्न के स्थूल भाग से अपशिष्ट बनकर देह से विसर्जन हो जाता है, अन्न का मध्य भाग रक्त व मांस-मज्जा बन जाता है, और सूक्ष्म भाग से मन का निर्माण होता है। इसलिए कहा भी गया है- जैसा खाओ अन्न, वैसा हो मन। आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में गौर किया जाए तो भोजन का सर्वाधिक असर हमारे मन पर पड़ता है।
अतः चातुर्मास के चार महीनों में व्रत-उपवास व सात्विक-अल्पाहार लेते हुए ध्यान-साधना करने से व्यक्ति जितेंद्रिय और परमात्मा के निकट वास करने के योग्य बन जाता है। दरअसल, चातुर्मास आहार-शुद्धि, जप, तप, ध्यान और धारणा के माध्यम से मनुष्य की सूक्ष्म और स्थूल कर्मेंद्रियों की शुचिता, आत्म-अनुशासन एवं मानसिक विकारों के विरेचन व शोधन करने का आध्यात्मिक कालखंड है।
डॉ विनोद यादव: (लेखक अध्यात्मिक चितक हैं. ये उनके अपने विचार है।)