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पौराणिक मान्यताओं और धार्मिक आस्थाओं से संबद्ध दीपावली के पर्व को मनाने के स्वरूप में समय के साथ अवश्य बहुत परिवर्तन हुए हैं। लेकिन इस पर्व की मूल भावना और उद्देश्य, अंतस-बाह्य जगत में सत्य, शांति, प्रेम और आनंद का प्रसार, आज भी कायम है। यही इस पर्व की प्रासंगिकता है।

Diwali 2024: जब-जब दीपावली का पर्व आता है, श्रीराम की अयोध्या वापसी का दृश्य स्मृति में जीवंत हो उठता है और मुझे अपना एक गीत याद हो आता है।
दीप घर-घर जले हैं अवध में पिया,
आज लौटे अयोध्या में रघुवर-सिया।

ऐसा इसलिए भी कि दीपावली त्योहार का संबंध इसी से है। वैसे दीपावली सबके लिए अलग-अलग अर्थ भी रखती है। सुख-दुख के नाना झंझटों में घिरा हुआ मन भी तीज-त्योहार पर खुशियां मना लेता है। दशहरा विजय पर्व है तो दीपावली दीप पर्व... प्रकाशपर्व। विजया दशमी के साथ ही जैसे दीपावली का उल्लास सिर पर चढ़ने लगता है। शरद की रातें सुहावनी होने लगती हैं। लिहाजा मन में उल्लास और तन में स्फूर्ति दुगनी हो उठती है। कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली यों तो भारत का प्रमुख त्योहार है किंतु जहां-जहां हिंदू समुदाय और भारत के लोग हैं, वे इस त्योहार को भारतीय रीति के अनुसार बढ़-चढ़कर मनाते हैं।

जीवन-संस्कृति में व्याप्त हैं राम
कहते हैं, विजया दशमी के दिन श्रीराम ने रावण पर विजय पाई थी। इस विजय को एक रूपक के रूप में हम बुराई पर विजय के रूप में लेते हैं। वैसे रामकथा पूरे विश्व में व्याप्त है। थोड़े-थोड़े अंतर से यह कथा ना केवल आज विश्वव्यापी जनसंस्कृति का हिस्सा बन गई है वरन साहित्य में भी रामकथा का व्यापक प्रभाव देखा जाता है। श्रीराम, रावण का वध कर अयोध्या लौटे हैं तो उत्सव क्यों ना मने! जब हमारी पूरी संस्कृति ही राममय है, लोक में, संस्कार में, गीतों में, आख्यानों में राम ही राम समाए हुए हैं।

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सोहर, विवाहगीत, ज्योनार, परछन, शादी-ब्याह, पुत्र जन्म आदि कौन-सा अवसर ऐसा है कि जो राम के उल्लेख के बिना पूरा होता है। वे हमारी जीवन-संस्कृति में इस कदर समाए हैं कि गोपियां, उद्धव को विदा करते हुए श्रीकृष्ण को राम-राम कहना नहीं भूलतीं यानी नमस्कार करना, रामजोहार करना। इसलिए कि राम-राम केवल राम का नाम-स्मरण ही नहीं, धीरे-धीरे लोक में वह नमस्कार का एक पर्याय भी बनता गया। गोपियां कहती हैं, ‘नाम को बताई और जतार्इ ग्राम ऊधो बस/स्याम सों हमारी रामराम कहि दीजियो।’ 

शास्त्रीय-पौराणिक मान्यताएं
दीपावली का संबंध मुख्यत: श्रीराम की अयोध्या वापसी से है। अयोध्यावासियों ने श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के बनवासोपरांत अयोध्या वापसी पर सब जगह मिट्टी के दीए जलाकर उत्सव मनाया था। यही उत्सव कालांतर में दीपावली कहलाने लगा। अयोध्यावासियों ने इस प्रसन्नता की अभिव्यक्ति के लिए घी के दीपक जलाकर श्रीराम का स्वागत किया था। इसीलिए इस दिन यानी कार्तिक की अमावस्या तिथि को दीपोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। कहा जाता है कि दीपावली के दिन देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर विराजती हैं, इसलिए लक्ष्मी के स्वागत में भी दीप जलाने का विधान है। इसलिए यह पर्व श्रीराम के स्वागत के निमित्त ही नहीं बल्कि धन-धान्य की देवी लक्ष्मी के पूजन का त्योहार भी बन गया है। 

पौराणिक कथानुसार, समुद्र मंथन में निकले 14 रत्नों  में एक देवी लक्ष्मी भी थीं, इसलिए कार्तिक की अमावस्या को उनके प्रकटीकरण पर उनके स्वागत एवं पूजन की परंपरा विकसित हुई। इस तरह दीपावली सदियों से मनाई जा रही है। पद्मपुराण और स्कंद पुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है। पुराणों के अनुसार दीपावली के दीप, सूर्य देवता के प्रतीक हैं। एक अन्य अर्थ में इसे प्रकाशपर्व माना जाता है, क्योंकि दीप जलाना, भौतिक रूप से उजाला तो करना ही है किंतु दीप जलाने का गूढ़ प्रतीकात्मक अर्थ भीतरी अंधकार और अज्ञान से मुक्ति भी है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ या ‘अप्प दीपोभव’ इसी आंतरिक उजाले का पर्याय है। 

पंचपर्वों की श्रंखला
दीपावली का यह प्रकाश पर्व पूरे पांच दिन के उत्सवी रंगों में डूबा रहता है। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भाई दूज। धनतेरस से आरंभ हुआ यह सिलसिला भाई दूज तक ही नहीं, देव दीपावली तक चलता है, जब कार्तिक की पूर्णिमा को समस्त देवता काशी के घाट पर गंगा किनारे मिलकर दीपावली मनाते हैं। इसीलिए दीपावली महापर्व के रूप में मनाया जाता है।

बदल गया है दीपावली का स्वरूप
यह जन-जन के मन का उल्लास है कि श्रीराम के अयोध्या शुभागमन का यह पावन पर्व अब जन-जन की इच्छा का भी पर्व बन गया है। यह उपहारों के लेन-देन का अवसर भी बन गया है। पर्वों पर मिठाइयां, नमकीन, छप्पन भोग परोसने वाले अपने भारत देश में कोई भी त्योहार बिना पकवान के नहीं मनाया जाता, जिसमें सब शामिल होते हैं। उत्सवता का बोल-बाला बढ़ गया है। बाजार झालरों से सजे हैं। मोमबत्तियों का दौर है यह, नकली बिजली की झालरों का भी युग है। बेचारे कुम्हारों को कौन पूछता है। गांव में चारागाह और तालाब पट गए। कहां से दीप बनाने की मिट्टी मिले। फिर भी कुम्हार साल भर इसी त्योहार की बाट जोहते हैं कि यह पर्व आए और उनके दीप और मिट्टी के बर्तनों की बिक्री हो। पर अब शुभ के लिए थोड़े दीए भले जला लिए जाएं पर बाकी जगहों पर मोमबत्तियां ही जलाई जाती हैं। झालरों ने घरों की सजावट को अधुनातन रूप दिया है।

दूर करें मन का अंधियारा
दीपावली हर साल आती है। हर साल हम दीप जलाकर पसरे अंधकार को भगाने का यत्न करते हैं। लेकिन अंधेरा है कि दूर होने का नाम नहीं लेता। ध्यान से देखें तो विज्ञान का उजाला तो हमने बहुत कर लिया पर अज्ञान, अधर्म, पाखंड, अंधविश्वास के अंधेरे को हम अभी भी नहीं मिटा सके। वह अंधेरा अभी भी हमारे आस-पास व्याप्त है। जहां वेद, पुराणों, उपनिषदों, महाभारत और रामायण जैसे आदि ग्रंथो में ज्ञान का प्रवाह लहराता मिलता हो, उस भारत में अभी भी बड़ी आबादी अल्पशिक्षित है, वंचित है।

आइए! दीपावली के इस महाप्रकाश पर्व में भीतर-बाहर सभी जगह से अंधकार और अज्ञान को मिटाने के लिए हम सब आगे आएं और लक्ष्मी को ऊंचा आसन देते, उनकी अर्चना करते हुए मन ही मन सरस्वती का सम्मान करना ना भूलें, जिससे वास्तव में समाज में व्याप्त जड़ता और अज्ञान पर प्रहार हो। हमारा समाज, हमारी संस्कृति और सभ्यता वास्तविक उजाले में रोशन हो सके और वैर, द्वेष के बजाय प्रेम की रोशनी धरा पर फैल जाए-

  • चलो कि टूटे हुओं को जोड़ें, जमाने से रूठे हुओं को मोड़ें
  • अंधेरे में इक दिया तो बालें, हम आंधियों का गुरूर तोड़ें
  • धरा पे लिख दें हवा से कह दें, है महंगी नफरत औ’ प्यार सस्ता।

(लेखक डॉ. ओम निश्चल हिंदी के कवि, आलोचक और भाषाविद हैं) 

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