आज के बदलते दौर में रिश्तों का टूटना लाजमी हो चला है। सात जन्मों का बंधन यानी पति-पत्नी का रिश्ता भी आपसी मतभेदों के चलते तलाक की कगार पर पहुंच जाते हैं। पहले तलाक में दोनों पक्ष चाहते थे कि बच्चा उनके पास रहे, लेकिन आज वक्त इतना बदल गया है कि बच्चे को भी शक की निगाहों से देखा जाने लगा है। कुछ ऐसा ही मामला दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष पहुंचा। यहां पत्नी से तलाक का केस लड़ रहे शख्स ने याचिका दाखिल कर अपने बच्चे के ब्लड सैंपल की मांग की ताकि डीएनए की जांच कराकर उसकी पत्नी को बेवफा साबित कर सके।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस शख्स ने 31 जनवरी 2020 को तलाक के लिए याचिका दायर की थी। इसके बाद 3 नवंबर 2020 को याचिका में संशोधन कर बताया कि वो एजोस्पर्मिया से पीड़ित थे। बता दें कि एजोस्पर्मिया ऐसी अवस्था है, जिसमें इलाज कराए बगैर सिमेन में स्पर्म नहीं बनता है। पति का कहना था कि बच्चा उसका नहीं है। पति ने अपने इस तर्क को सही साबित करने के लिए फिर से आवेदन दायर किया, जिसमें बच्चे के ब्लड सैंपल की मांग की गई। फैमिली कोर्ट ने इस अर्जी को साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के तहत खारिज कर दिया। इस पर उसने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन हाई कोर्ट ने भी इस अर्जी को खारिज कर दिया है।
हाई कोर्ट ने अर्जी खारिज करने की ये बताई वजह
न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति अमित बंसल की खंडपीठ ने यह कहते हुए अर्जी खारिज कर दी कि याचिकाकर्ता ने नवंबर 2020 तक बच्चे के पितृत्व पर सवाल नहीं उठाया था। तलाक की कार्रवाई में संशोधन करने के बाद यह सवाल उठाया गया है। कोर्ट ने कहा कि एज़ोस्पर्मिया का इलाज संभव है। साथ ही, दिल्ली हाई कोर्ट ने बच्चे के हितों पर भी हस्तक्षेप से इनकार किया। साथ ही कहा कि फैमिली कोर्ट से बच्चे के ब्लड सैंपल लेने की मांग वाली याचिका खारिज करने में हस्तक्षेप करने का भी कोई कारण नहीं मिला है। ऐसे में हाई कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया।