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हरियाणा के सोनीपत में पिछली बार जहां जातिगत राजनीति व नरेंद्र मोदी की छवि के आगे मुद्दे गौण हो गए थे। वहीं इस बार जातिगत समीकरण ना बनते देख नेता और उनके समर्थक भी मुद्दों पर बातचीत करने लगे हैं। भाजपा प्रत्याशी और समर्थक जहां विकास कार्यों को गिनवाने में लगे हैं। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी और समर्थक 10 सालों का हिसाब मांग रहे हैं।

दीपक वर्मा, सोनीपत: लोकसभा चुनावों की सरगर्मियां धीरे-धीरे परवान चढ़ रही है। इसके साथ ही परवान चढ़ने लगी है मुद्दों की बात। पिछली बार जहां जातिगत राजनीति व नरेंद्र मोदी की छवि के आगे मुद्दे गौण हो गए थे। वहीं इस बार जातिगत समीकरण ना बनते देख नेता और उनके समर्थक भी मुद्दों पर बातचीत करने लगे हैं। भाजपा प्रत्याशी और समर्थक जहां विकास कार्यों को गिनवाने में लगे हैं। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी और समर्थक 10 सालों का हिसाब मांग रहे हैं। दूसरी ओर इनेलो प्रत्याशी इनेलो की खोई हुई जमीन की तलाश में हैं, वहीं जजपा प्रत्याशी अपनी पार्टी की साख बचाने की कोशिश में जुट गए हैं। अब देखना यह होगा कि किस पार्टी के सिर जीत का ताज सजेगा।

सोनीपत लोकसभा में मुद्दों पर लड़ा जाएगा चुनाव

सोनीपत लोकसभा सीट पर सबसे अधिक जाट समुदाय से ही प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है। इसके बावजूद भाजपा और कांग्रेस जैसे प्रमुख राजनीतिक दलों ने जाट समुदाय से प्रत्याशी उतारने की बजाय ब्राह्मण समुदाय से प्रत्याशी मैदान में उतारा है। हालांकि इनेलो और जजपा ने जाट समुदाय से ही प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। खास बात ये है कि इस बार चुनाव जातिगत राजनीति की बजाय मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। हालांकि आशंका जताई जा रही है कि आने वाले समय में चुनाव क्षेत्रवाद पर फोकस हो सकता है। इसके बावजूद सोनीपत सीट को एकतरफा किसी भी पार्टी के पक्ष में नहीं कहा जा सकता। भाजपा और कांग्रेस में जोरदार मुकाबला जारी है और आने वाले दिनों में दोनों के बीच कांटें की टक्कर बनी रह सकती है।

आखिरी तीन दिन में पलटा था चुनाव

2019 के लोकसभा चुनावों में जिस तरह से आखिर के तीन दिनों में चुनाव पलटा था, वो फैक्टर इस बार के चुनाव में पूरी तरह से नदारद है। यहां बात कर रहे हैं जातिवाद की। 2019 के चुनावों में कांग्रेस उम्मीदवार भूपेंद्र सिंह हुड्डा और भाजपा उम्मीदवार रमेश कौशिक के बीच के चुनाव को जाट-नॉन जाट चुनाव करार दिया गया था। विशेषतौर पर चुनाव से तीन दिन पहले गोहाना में हुई कांग्रेस की रैली के बाद से चुनाव पलटता चला गया। जानकार बताते हैं कि चुनाव को जातिगत रंग दिए जाने की वजह से ही पूर्व मुख्यमंत्री को 1 लाख 64 हजार 864 मतों से हार का सामना करना पड़ा था।

जींद ने दी थी 98 हजार की लीड

पिछली बार जींद की तीनों विधानसभाओं ने भाजपा को 98 हजार से अधिक की लीड दी थी। वहीं सोनीपत की छह में से दो विधानसभाओं ने कांग्रेस को और चार ने भाजपा को लीड दी थी। जो लगभग 24 हजार और 66 हजार के करीब थी। उस समय कांग्रेस प्रत्याशी भूपेंद्र सिंह हुड्डा को बरोदा और खरखौदा ने ही लीड दी थी। वहीं अन्य सभी 7 विधानसभाओं में भाजपा प्रत्याशी रमेश कौशिक ने ही लीड ली थी। इसमें गन्नौर ने 16,622, राई ने 18072, सोनीपत ने 41,870, गोहाना ने 10,770, जींद ने 40,523, सफीदों ने 45,125 और जुलाना ने 13,842 की लीड दी थी। जिसकी वजह से हुड्डा 1 लाख 64 हजार 864 मतों से जीत दर्ज कर पाए थे।

जातिवाद पर कोई फोकस नहीं

इस बार चुनाव प्रचार में सभी राजनीतिक दलों के नेतागण जातिवाद को किसी भी तरह से बढ़ावा नहीं दे रहे। समीकरण भी कुछ इस हिसाब के बने हैं, क्योंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों के प्रत्याशी एक ही समुदाय के हैं। वहीं जजपा और इनेलो प्रत्याशी एक ही समुदाय के हैं। मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच बनता दिखाई दे रहा है और दोनों प्रत्याशी ब्राह्मण समुदाय से होने के कारण जातिगत राजनीति करने का कोई फायदा नहीं दिख रहा। इसी वजह से सभी नेता इस बार जाति को हवा नहीं दे रहे।

हो सकता है जींद बनाम सोनीपत

अभी तक भाजपा और कांग्रेस अपनी-अपनी नीति के आधार पर चुनाव प्रचार में जुटी हुई है। अभी तक क्षेत्रवाद की हलकी सुगबुगाहट है। अगर क्षेत्रवाद की बात ज्यादा उठती है तो दोनों ही पार्टियों के समीकरण बिगड़ सकते हैं। क्योंकि कांग्रेस उम्मीदवार जहां मूलरूप से जींद के हैं, वहीं भाजपा प्रत्याशी मूल रूप से सोनीपत के हैं। लोकसभा क्षेत्र में सोनीपत की 6 तो जींद की 3 विधानसभा शामिल हैं। ऐसे में क्षेत्रवाद चुनावों में हावी होता है तो चुनाव जींद बनाम सोनीपत का होगा। जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिलना तय है।

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