Spirituality Tips: हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने में परिवार को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है। लोग अपने परिवार की खुशी और सुरक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। कभी परिवार की खुशी के लिए अपनी निजी खुशियों की कुर्बानी देते हैं तो कभी परिवार के साथ मिल-जुलकर रहने और परिवार को खुश रखना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लेते हैं। परिवार का मतलब स्वीकार्यता, अपनापन, जुड़ाव, जिम्मेदारी, सशक्तिकरण भी होता है। इसमें एक जिम्मेदारी के साथ घर के सभी सदस्यों की जरूरत और खुशी का ध्यान रखा जाता है। हालांकि इक्कीसवीं सदी में परिवार के जुड़ाव में कमी आ रही है। इसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैं।
कमजोर हो रही पारिवारिक संस्कृति
भारत में प्राचीन काल से मिल-जुलकर रहने वाली पारिवारिक संस्कृति को आत्मसात किया गया है। दुनिया के भी बहुत से देशों में परिवार को तरजीह देने की संस्कृति रही है। लेकिन बीते कुछ सालों से इसमे बहुत बदलाव देखने को मिल रहे हैं। आज दुनिया भर में बुजुर्गों के लिए ओल्ड एज होम्स की संख्या बढ़ रही है। कुछ ऐसे देश भी हैं, जहां मां-बाप और बच्चे गैरों की तरह जिंदगी गुजारते हैं। खुदपरस्ती इनकी संस्कृति का हिस्सा बन गई है। बुजुर्ग मां-बाप को साथ रखना उन्हें निजी जिंदगी में दखलअंदाजी लगती है।
पारिवारिक विघटन की वजहें
भूमंडलीकरण के प्रभाव की वजह से पारिवारिक विघटन वाली सोच अपने देश में भी आ रही है। अपने देश में बड़ी संख्या में लोग रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों में या विदेशों में पलायन कर रहे हैं। इस वजह से एकाकी परिवार में रहना एक परंपरा या मजबूरी सी बनती जा रही है। इसी के चलते मानसिक तनाव भी बढ़ने लगा है। शिक्षा में पश्चिमी प्रभाव, नौकरी और जीवनशैली का उच्च स्तर भी पारिवारिक अलगाव की एक वजह बन रहा है। जिन लोगों के पास अच्छी शिक्षा है, जाहिर वो अच्छे पदों पर काम करते हैं। वो काम के सिलसिले में दूसरे देशों में जाते हैं।
इसकी वजह से माता-पिता से दूरी बन जाती है। साथ ही ऐसे परिवारों में आर्थिक रूप से लोग एक-दूसरे पर निर्भर नहीं रहते। लिहाजा उन्हें अलग होने में कोई हिचक भी महसूस नहीं होती। शहरों में महंगी जीवनशैली की वजह से बड़े परिवार को साथ रखना आसान नहीं होता है। इसलिए भी बुज़ुर्गों के साथ अलगाव की स्थिति पैदा हो रही है। बाजारवाद के प्रभाव से आगे निकलने की होड़ और संचार क्रांति ने भी रिश्तों के बीच कड़वाहट के बीज बोने का काम किया है। इंटरनेट और मोबाइल फोन सर्वसुलभ होने से रिश्ते डिजिटल होते जा रहे हैं। लोग अब एक साथ बैठकर बातचीत या भोजन करना तक पसंद नहीं करते हैं। इसी वजह से समाज में तलाक की संख्या बढ़ती जा रही है और परिवार भी टूट रहे हैं।
मूल्यों में अंतर है बड़ी वजह
ऐसा नहीं है कि परिवार में होने वाला अलगाव अचानक या रातों-रात हो जाता है। ये बहुत धीरे-धीरे होता रहता है। कई बार छोटी सी घटना भी परिवार को तोड़ देती है। कहने को तो वो एक घटना होती है लेकिन उसके नतीजे दूरगामी होते हैं। उम्र के साथ-साथ मां-बाप और बच्चों की सोच और जीवनमूल्यों में अंतर आ जाता है। मिसाल के लिए अगर मां बहुत धार्मिक हैं और उन्होंने बच्चों को भी वहीं संस्कार दिए तो भी जरूरी नहीं कि बच्चे उन्हीं संस्कारों को मानें। यहीं से टकराव की शुरुआत होती है। अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है।
ये भी देखा गया है कि आमतौर से अलग होने वाले माता-पिता और बच्चों के बीच अलग होने की वजह को लेकर कोई संवाद नहीं होता। यदि इसको आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो हम पाते हैं कि जब तक इंसान देहभाव से काम कर रहा है, तब तक उसे दूसरे को भी देह की तरह देखना पड़ेगा और दूसरे को देह की तरह देखा नहीं कि दूसरे के साथ अलग रहने का, दूसरे के साथ एक तरह के एकांतवास का उसको बड़ा लालच रहेगा।
आध्यात्मिक मूल्यों की महत्ता
परिवार को जोड़े रखने, उसमें खुशियां बनाए रखने के लिए जितना ज्यादा-से-ज्यादा माहौल आध्यात्मिक रख सकें, उतना अच्छा। हालांकि आजकल लोगों के जीवन में सुख-सुविधाएं बहुत हो गई हैं, दुख-रोग कम हो गए हैं। विज्ञान, तकनीक, चिकित्साशास्त्र ने दुखों को बहुत कम कर दिया है तो आदमी के भीतर एक गलतफहमी आ गई है कि जरूरत क्या है धर्म-अध्यात्म की? लेकिन इसकी महत्ता तब समझ में आती है, जब कोई विपत्ति आती है। मानसिक शांति नहीं मिलती। अकेलेपन का एहसास होता है। तब पारिवारिक संबल की सबसे अधिक आवश्यकता महसूस होती है। इस संवेदनशीलता के पोषण में अध्यात्म की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। तो जहां तक हो सके परिवार में आध्यात्मिक मूल्य बनाए रखिए।