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हिंदी फिल्मी गीतों में आरंभिक दौर से ही विभिन्न भाषाओं के शब्दों, लोक-गीतों और लोक-धुनों का प्रयोग किया जाता रहा है। दशकों गुजर जाने के बाद भी लोक-संस्कृति के रंगों से सजे ऐसे गीत लोगों के दिलो-दिमाग में आज भी रचे-बसे हैं। ऐसे ही कुछ लोकप्रिय फिल्मी गीतों पर एक नजर।

Film Songs: फिल्मी गीतों में सिर्फ कथानक के मुताबिक शब्दों का ताना-बाना ही नहीं बुना जाता, इसके अलावा भी बहुत कुछ होता है। फिल्म के कथानक के अलावा पृष्ठभूमि के अनुरूप गीतों की रचना की जाती है। जब से हिंदी फिल्में बनना शुरू हुईं, तब से अभी तक के दौर पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो कई कालखंड ऐसे नजर आते हैं, जब गीतकारों ने हिंदी, उर्दू और पंजाबी के अलावा कई और भाषाओं और बोलियों के शब्दों को भी अपने गीतों में जगह दी। इसके साथ ही लोकगीतों एवं लोकधुनों का भी हू-ब-हू या थोड़े-से परिवर्तन के साथ प्रयोग किया जाता रहा है। ये गीत खूब सफल भी हुए।

लोक-संस्कृति की झलक दिखाते गीत 
वर्ष 1981 में आई फिल्म ‘लावारिस’ में अमिताभ बच्चन के कवि पिता हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित एक अवधी लोकगीत से प्रेरणा लेकर ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ गीत रचा गया। ये गीत अपने दिलचस्प अंदाज के कारण बेहद लोकप्रिय भी हुआ। यश चोपड़ा की फिल्म ‘सिलसिला’ का गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ खूब लोकप्रिय हुआ था। इस गीत के बोल, धुन और फिल्मांकन में लोकभाषा, लोकगीत एवं लोकरंग का प्रभाव साफ देखा-सुना जा सकता है। आज भी होली के अवसर पर ये सदाबहार गीत जरूर बजाया जाता है। मनोज कुमार की फिल्म ‘क्रांति’ के गीत ‘चना जोर गरम बाबू’ पर भी लोकरंग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

ग्रामीण लोकरंग की बानगी
राजश्री की फिल्म ‘नदिया के पार’ में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ग्रामीण परिवार का कथानक था। इस फिल्म के गीत, ‘कौन दिसा में लेके चला रे बटोहिया’, ‘जोगी जी धीरे-धीरे’, ‘हमार भौजी’ उन दिनों खूब लोकप्रिय हुए थे। इस फिल्म के सभी गीत अवधी और भोजपुरी लोकगीतों से प्रभावित थे। इस फिल्म के गीतों में कहीं ना कहीं पूर्वांचल की संस्कृति और वहां के लोकगीत सांस लेते दिखाई-सुनाई देते हैं। राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के गीत ‘अंग लग जा बलमा’ और ‘सावन भादों’ के ‘कान में झुमका चाल में ठुमका’ गीत में तो साफ गंवईपन महकता है। नितिन बोस की फिल्म ‘गंगा-जमुना’ के गीतों पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों विशेषकर अवधी, भोजपुरी और ब्रज की छाप दिखती है। ‘नैन लड़ि जइहैं तो मनवा में’, ‘ना मानूं ना मानूं ना मानूं रे’, ‘ढूंढ़ो-ढूंढ़ो रे साजना’, ‘दो हंसों का जोड़ा’, ‘तोरा मन बड़ा पापी’ जैसे गीतों में तो मानो पूरी लोक-संस्कृति ही जीवंत हो उठती है।

ऐसे गीतों की लंबी है फेहरिस्त
लोकरंग में रचे-बसे ऐसे गीतों की फेहरिस्त काफी लंबी है। ‘बहारों के सपने’ फिल्म के गीत ‘आजा पिया तोहे प्यार दूं’, ‘चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए’ में ब्रज के लोकगीतों का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। ‘मिलन’ के गीत ‘सावन का महीना पवन करे सोर’ में भी गांव के जीवन और वहां की निश्छलता को महसूस किया जा सकता है। फिल्म ‘पड़ोसन’ के ‘इक चतुर नार’ तथा ‘मेरे भोले बलम’ गीतों में लोकांचल को खूब महसूस किया जा सकता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ के ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस’ और ‘अनोखी रात’ के गीत ‘ओह रे ताल मिले नदी के जल में’ भी तो लोक जीवन की साफ झलक है। ‘हीर रांझा’ के गाने ‘तेरे कूचे में तेरा दीवाना’, ‘डोली चढ़के’, ‘नाचे अंग वे’ गीतों में पंजाब की माटी की महक आती है।

फारसी शब्दों का शानदार प्रयोग 
केवल भारतीय भाषाओं और बोलियों को ही नहीं हिंदी फिल्मों में अन्य भाषाओं के साथ भी प्रयोग किए गए हैं। जेपी दत्ता की फिल्म ‘गुलामी’ में गुलजार के रचे गीत ‘जिहाल-ए-मिस्किन मुकन बरंजिश बेहाल, हिजरा बेचारा दिल है’ में फारसी के शब्दों को बेहद खूबसूरत अंदाज में मिश्रित किया गया है। इस गीत में जिहाल का अर्थ है ध्यान देना, मिस्कीन का अर्थ है गरीब, मकुन बरंजिश का अर्थ है दुश्मनी न करना, बेहाल-ए-हिजरा का अर्थ है, ताजा अलगाव। इसका हिंदी में अर्थ है, ये दिल जुदाई के गमों से अभी भी ताजा है, इसकी बेचारगी को निष्पक्षता से महसूस करो। गीत का पहला मुखड़ा ‘जिहाल मिस्की...’ हिंदवी के पहले कवि अमीर खुसरो की रचना से लिया गया है। अमीर खुसरो की मूल रचना कुछ इस तरह है- ‘जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाए बतियां, कि ताब-ए-हिज्रां नदारम ऐ जां न लेहू काहे लगाए छतियां।’ कहने का सार यह कि सुनने में जो अच्छा लगे, वही गीत अच्छा होता है, फिर वो किसी भी भाषा, बोली या संस्कृति का क्यों न हो!

हेमंत पाल

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