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Opinion: हमारे समाज में बेटी यदि अपने ससुराल से मायके आ जाए, तो लोग उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते। बेटी ने अपने ससुराल में किस तरह के ताने और प्रताड़ना सही होगी, यह जानने की कोशिश माता-पिता के अलावा और कोई नहीं करता। आखिर बेटी को भी सम्मान से जीने का हक है।

डॉ. महेश परिमल: हाल ही में उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक अनोखी घटना हुई। बीएसएनएल से सेवानिवृत्त हुए अनिल कुमार अपनी बेटी को उसके ससुराल से बैंड-बाजे के साथ घर लाए। उनका मानना था कि मैंने जिस तरह से बेटी को सम्मान के साथ उसके ससुराल भेजा है, तो अब उसे ससुराल से हमेशा-हमेशा के लिए अपने घर लाने के लिए भी उतना ही सम्मान दूंगा। हुआ यूं कि अनिल कुमार की बेटी की शादी 8 साल पहले कंप्यूटर इंजीनियर के साथ हुई थी। ससुराल में उवीं को सम्मान नहीं मिला। दहेज के कारण उसे प्रताड़ित किया जाता था।

8 साल तक बिटिया ने यह अपमान सहा। जब सहन नहीं हुआ, तो उसने माता-पिता से गुहार लगाई कि उसे अब मायके बुला लिया जाए। इससे पिता ने यह अनुकरणीय उदाहरण पेश करते हुए उसे ससम्मान घर वापसी कराई। हमारे समाज में बेटी यदि अपने ससुराल से मायके आ जाए, तो लोग उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते। बेटी ने अपने ससुराल में किस तरह के ताने और प्रताड़ना सही होगी, यह जानने की कोशिश माता-पिता के अलावा और कोई नहीं करता। आखिर बेटी को भी सम्मान से जीने का हक है। उसने ससुराल की प्रताड़ना के खिलाफ आवाज उठाकर कोई अपराध नहीं किया है। वह भी अपनी तरह से जीना चाहती है।

सभी परंपराओं की दुहाई देने लगते हैं
बेटी को भी बेटे की तरह जीने का अधिकार होना चाहिए, यह बात समाज के लोग अक्सर करते हैं, पर जब उसे अमल में लाने की बात आती है, तो सभी परंपराओं की दुहाई देने लगते हैं। आजकल तलाकशुदा बेटी का जीवन बहुत ही ज्यादा दुश्वार हो गया है। वह भी अपने तरीके से जीवन जीना चाहती है। उस पर जीवन थोपा नहीं जा सकता। ससुराल में यदि उसे प्रताड़ना मिलती है, तो फिर माता-पिता के अलावा उसका कौन है? बेटी का घर आना माता-पिता के लिए दुःखों का पहाड़ टूटना ही समझा जाता है। शुरुआत में माता-पिता काफी कोशिशें करते हैं कि बेटी का घर बस जाए। बात नहीं बनने पर वे अपनी बेटी को घर बुलाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं। बेटी को ससुराल में प्रताड़ना देने का रिवाज शिक्षित वर्ग में ही अधिक देखा जाता है। तलाक भी शिक्षित वर्ग में ही अधिक होते हैं। आखिर ऐसी शिक्षा का क्या महत्व, जो विवाह को स्थायित्व देने का काम न करती हो। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है, जो विवाह के टूटने की बाट जोहता रहता है, विवाह टूटने के बाद वह उसका आनंद लेने लगता है। विबाह टूटने के मामले में आजकल के युवा एवं उसके माता-पिता अधिक जवाबदार माने जाते हैं। 

स्वाभिमान के साथ अपना जीवन जी सके
कई मामलों में बेटी के माता-पिता यह मानते हैं कि ससुराल में बेटी जिस तरह से रोज-रोज मर रही है, उससे अच्छा यही है कि उसकी घर वापसी कर दी जाए, ताकि वह स्वाभिमान के साथ अपना जीवन जी सके। आखिर बिटिया कब तक लाचारी का जीवन जिएगी? लाचारी से भरा जीवन जीने से अच्छा यही है कि वह तलाक लेकर अपने माता-पिता के घर आ जाए। इन दिनों समाज में एक नई परंपरा देखने को मिल रही है। जिस तरह से बेटे को अपना जीवन जीने का हक है, उसी तरह बेटी को भी है। बेटी और बेटे के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। कौन सच्चा और कौन झूठा है, इसे समझने में बरसों लग जाते हैं, इसलिए यही अच्छा है कि बेटी घर ही आ जाए। बेटी घर की इज्जत है, यह सूत्रवाक्य आज हमारे समाज में अमल में लाया जाता है, पर बेटी के भी अपने सपने होते हैं, वह भी खुलकर जीना चाहती है। आखिर अपनी इच्छाओं को मारकर कब तक जिया जाए? इसलिए कानपुर के अनिल कुमार ने एक नई परंपरा की शुरुआत कर समाज को दिशा देने की कोशिश की है।

अनिल कुमार जैसी सोच बहुत कम लोगों की होती है। उन्होंने समझ लिया था कि बेटी को ससम्मान घर लाकर वे समाज के सवालों का जवाब नहीं दे पाएंगे, पर समाज को भी सोचना चाहिए कि कौन माता-पिता ऐसे होंगे, जो अपनी बेटी को उसके हाल पर छोड़ देना चाहते हैं। धनलिप्सा के कारण ससुराल वाले बेटी को बरसों से प्रताड़ित ही कर रहे हैं। आखिर इस कुप्रथा को खत्म करने की कोशिश भी तो होनी चाहिए। बेटी को नई जिंदगी देने के लिए माता-पिता का यह प्रयास आज भले ही अनुकरणीय न लगे, पर भविष्य में इसे सही मान लिया जाएगा, यह तय है। अब समाज को भी सारे मिथकों से दूर होना होगा। बेटी को लेकर गढ़े गए तमाम सूत्रवाक्यों को नई सिरे से पारिभाषित करना होगा। बेटी को भी जीने का हक है, इसे समझते हुए ही अनिल ने जो किया, उसे नमन करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है. ये उनके अपने विचार है)

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