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Opinion: उत्तराखंड की तरह भगवान का घर माना जाता है। किंतु मूसलाधार बारिश और भूस्खलन हिमालय से लेकर केरल तक तबाही के कारण बन रहे हैं। यह पूरा इलाका पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। अतएव ग्रामीणों को पहले से ही अनहोनी की आशंका थी, जो इस बारिश में घट गई।

Opinion: नयनाभिराम प्राकृतिक संपदा और बहुगा जल संसाधनों के कारण केरल को उत्तराखंड की तरह भगवान का घर माना जाता है। किंतु मूसलाधार बारिश और भूस्खलन हिमालय से लेकर केरल तक तबाही के कारण बन रहे हैं। देश के सुदूर दक्षिण राज्य केरल में प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया और भूस्खलन एवं चेरियाल नदी के जलभराव से क्षेत्र में बसे चाय बागान मजदूरों के चार गांवों ने मिट्टी के मलबे में जल समाधि ले ली।

पहाड़ी क्षेत्र भूस्खलन प्रभावित
चेरिगाल नदी पहाड़ों से निकलती हुई समतल भूमि पर चार दिनों से चल रही बारिश के कारण अत्यंत तेज गति से बही। इसी समय पहाड़ जल के प्रवाह से वह पड़े और पत्थरों व मलचे से चूरलमाला, अट्टामाला, नूलपुझा और मुंडक्कई इस मलबे में पूरी तरह दब गए। जल की रफ्तार में हजारों पेड़, सैंकड़ों वाहन भी जड़ों से उखड़ कर ग्रामों की ओर बहते चले आए। करीब 2200 की आबादी के 400 से ज्यादा घर कुछ पलों में मिट्टी के ढेर में बदल गए। यह पूरा इलाका पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। अतएव ग्रामीणों को पहले से ही अनहोनी की आशंका थी, जो इस बारिश में घट गई।

केरल में केदारनाथ की तरह जो जल तांडव आया, उसने तय कर दिया है कि यह आपदा भगवान को देन न होकर मानव निर्मित पर्यावरणविदों ने भी इस बाढ़ को मानव निर्मित आपदा करार दिया है। इसका कारण बड़ी मात्रा में जंगलों की कटाई और पर्यटन में वृद्धि है। चेरिवाल बाढ़ क्षेत्र की जीवनदायिनी नदी मानी जाती रही है, लेकिन वही आधुनिक विकास के चलते मीत का सबब चन गई। कृषि प्रधान इस इलाके चाय के अलावा नारियल, केला, मसाले और शुष्क मेवा की फसलें भी खूब होती हैं। इसके अलावा पर्यटन भी राज्य को अआमदनी व रोजगार का मुख्य स्रोत है। आय के ये सभी संसाधन प्राकृतिक हैं।

80 बांधों में से 36 बांधों के दरवाजे एकाएक खोल दिए
गोया, प्रकृति का इस तरह से रूठ जाना आर्थिक रूप से खस्ताहाल केरल पर लंबे समय से भारी पड़ रहा है। क्योंकि इसके पहले बरसात में ही केरल के 80 बांधों में से 36 बांधों के दरवाजे एकाएक खोल दिए गए थे। इन बांथों से निकले पानी ने बड़ी तबाही मचाई थी। यह तबाही पूरी तरह मानवीय भूल थी, लेकिन सिंचाई विभाग के किसी नौकरषाह की जबावदेही तय करके दंड दिया गया हो, ऐसा देखने में नहीं आया। अब आधुनिक विकास, बढ़ते शहरीकरण के साथ तकनीक भी बाढ़ के पानी को मौत के कारणों में बदल रही है। दिल्ली की एक बहुमंजिला इमारत के तलघर में चल रही कोचिंग संस्थान में पानी भर जाने से तीन होनहार बच्चों की मौतें हुई हैं। ये मौतें पानी के कारण नहीं तकनीक के कारण हुई है, जिसे जांच में नजरअंदाज किया जा रहा है।

दरअसल तलघर के दरवाजे बायोमेट्रिक दरवाजे लगे थे। इ इस प्रकार के द्वार में चाबी वाला ताला नहीं होता है। यह द्वार उपयोगकर्ता के अंगूठे की पहचान से खुलता है। अंगूठे के निशान पहले से ही स्कैन कर स्टोर कर लिए जाते हैं। किंतु जब तलघर में पानी भरा तब बिजली बंद कर दी गई। अतएव अंगूठे का स्पर्श कराने के चावजूद दरवाजे नहीं खुले और अर्थएएस बनने की तैयारी में लगे तीन युवकों की मौत हो गई। लिहाजा आने वाले समय में तकनीक इस तरह के हादसे का कारण न बने। आपदा से सबक नहीं लिया सेना, नौसेना, वायुसेना के लोग केरल के आपदाग्रस्त इलाके में लोगों को बचाने में लगे हैं। देश में ऐसी आपदाओं का सिलसिला पिछले एक दशक से निरंतर जारी है। बावजूद हम कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। यही कारण है कि विपदाओं से निपटने के लिए हमारी आंखें तब खुलती है, जब आपदा की गिरफ्त में आ चुके होते हैं।

रोज बादल फट रहे हैं
इसीलिए केरल में तबाही का जो मंजर देखने में का रहा है, उसकी कल्पना हमारे शासन-प्रशासन को कतई नहीं थी। यही चजह है कि केदारनाथ, अमरनाथ, हिमाचल और कश्मीर के जल प्रलय से हमने कोई सीख नहीं ली। गोया वहां रोज बादल फट रहे हैं और पहाड़ के पहाड़ ढह रहे हैं। हिमाचल, असम और उत्तर प्रदेश में भी बारिश आफत बनी हुई है। बावजूद न तो हम शहरीकरण, औद्योगीकरण, तकनीकीकरण और तथाकथित आधुनिक विकास से जुड़ी नीतियां बदलने को तैयार हैं और न ही ऐसे उपाय करने को प्रतिबद्ध हैं, जिससे ग्रामीण आबादी शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर न हो? शहरों में यह बढ़ती आचादी मुसीबत का पर्याय चन गई है। नतीजतन प्राकृतिक आपदाएं भयावह होती जा रही है। सूरत, चेन्नई, बेंगलुरू, गुरुग्राम ऐसे उदाहरण हैं, जो स्मार्ट सिटी होने के बावजूद बाढ़ की चपेट में रहे हैं।

यहां कई दिनों तक जनजीवन ठप रह गया था। बारिश का १० प्रतिशत पानी तचाही मचाकर अपना खेल खेलता हुआ समुद्र में समा जाता है। यह संपत्ति को बरबादी तो करता ही है, खेतों की उपजाऊ मिही भो बहाकर समुद्र में ले जाता है। देश हर तरह की तकनीक में पारंगत होने का दावा करता है, लेकिन जब हम बाढ़ की त्रासदी झेलते हैं तो ज्यादातर लोग अपने बूते ही पानी में जान व सामान बचाते नजर आते हैं। आफत की बारिश के चलते हुब में आने वाले महानगर कुदरती प्रकोप के कठोर संकेत हैं, लेकिन हमारे नीति- नियंता हकीकत से आंखें चुराए हुए हैं।

बाढ़ की यही स्थिति असम व बिहार जैसे राज्य भी हर साल झेलते हैं, यहां बाद दशकों से आफत का पानी लाकर हजारों ग्रामों को डुबो देती है। इस लिहाज से शहरों और ग्रामों को कथित रूप से स्मार्ट व आदर्श बनाने से पहले इनमें ढांचागत सुधार के साथ ऐसे उपायों को मूर्त रूप देने की जरूरत है, जिससे ग्रामों से पलायन रुके और शहरों पर आबादी का दबाव न बढ़े? आफत की यह बारिश इस बात की चेतावनी है कि हमारे नीति-नियंता, देश और समाज के जागरूक प्रतिनिधि के रूप में दूरदृष्टि से काम नहीं ले रहे हैं।

दुनिया में वर्षाचक्र में बदलाव के संकेत
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मसलों के परिप्रेक्ष्य में चिंतित नहीं हैं। कृषि एवं आपदा प्रबंधन से जुड़ी संसदीय समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन से कई फसलों की पैदावार में कमी आ सकती है, लेकिन सोयाधीन, चना, मूंगफली, नारियल और आलू की पैदावार में बढ़त हो सकती है। हालांकि कृषि मंत्रालय का मानना है कि जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए खेती को पद्धतियों को बदल दिया जाए तो अनेक फसलों की पैदावार में 10 से 40 फीसदी तक की बढ़ोतरी संभव है।

बढ़ते तापमान के चलते भारत ही नहीं दुनिया में वर्षाचक्र में बदलाव के संकेत 2008 में ही मिल गए थे, बावजूद इस चेतावनी को भारत सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। ध्यान रहे, 2031 तक भारत की शहरी आबादी 20 करोड़ से बढ़‌कर 60 करोड़ हो जाएगी। जो देश की कुल आबादी की 40 प्रतिशत होगी। ऐसे में सहरों की क्या नारकीय स्थिति बनेगी, इसकी कल्पना भी असंभव है? बहरहाल देश को हर साल बाद जैसी प्राकृतिक आपदाओं का संकट नहीं झेलना पड़े, अतएव अब क्रांतिकारी पहल करना जरूरी हो गया है। वरना देष हर वर्श किसी न किसी राज्य या महानगर में बाढ़ जैसी भीषण त्रासदी झेलते रहने को विवश होता रहेगा?
प्रमोद भार्गव: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)

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