Opinion: भाजपा को अपना अध्यक्ष चुनना है। मौजूदा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का बढ़ा हुआ कार्यकाल जून में पूरा हो चुका है। नड्डा वर्ष 2019 में वर्किंग प्रेसिडेंट बने थे, वर्ष 2020 में पूर्णकालिक अध्यक्ष बने। भाजपा अध्यक्ष का कार्यकाल तीन वर्ष का होता है। लोकसभा चुनाव को देखते हुए नड्डा को एक्सटेंशन मिला। अब चूंकि नड्डा पीएम मोदी मंत्रिमंडल में केंद्रीय स्वास्थ्य व रसायन व उर्वरक मंत्री बनाए गए हैं, इसलिए भाजपा नए चेहरे तलाश रही है।
नया अध्यक्ष पार्टी की पसंद
भाजपा अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया एक अगस्त से शुरू होगी व दिसंबर में पूरी होगी। अब बड़ा सवाल है कि भाजपा का नया अध्यक्ष पार्टी की पसंद का होगा या संघ की पसंद का? वर्ष 2024 के आम चुनाव नतीजे के बाद संघ की ओर से भाजपा नेताओं की दी गई नसीहत को मीडिया में जिस तरह अदावत की तरह प्रचारित किया गया है, उसके बाद से यह सवाल मौजूं है। यह सवाल इसलिए भी कि भाजपा के अध्यक्ष चुनाव से पहले केरल में 31 अगस्त से 2 सितंबर तक संघ व भाजपा समेत अनुषंगी संगठनों की समन्वय बैठक हो रही है। इस बैठक से भाजपा को अपने अध्यक्ष के लिए चेहरे के चयन को लेकर संकेत मिल सकता है।
हाल में संघ व भाजपा के रिश्ते का नए अध्यक्ष व उनकी टीम के चयन पर असर दिखाई देगा। आम चुनाव के परिणाम के बाद संघ की ओर से आए बयानों को समझने का प्रयास करें, तो भाजपा को लेकर संघ की 'भागवत कथा' न मनभेद है, न मतभेद है, पर यह एक नसीहत, एक आईना जरूर है। जो लोग फेक नैरेटिव गढ़कर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि संघ और भाजपा में दूरी बढ़ रही है, तो वे या तो गफलत में हैं, वा सवास ऐसा कर रहे हैं। यह कहा जाना कि संघ व भाजपा के बीच सबकुछ ठीक नहीं है, तो यह पहली बार नहीं है, जब भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ओर से सलाहियत दी गई हो, वर्ष 1984 व वर्ष 2004 में भी वर्ष 2024 की भांति संघ ने भाजपा को सलाह दी थी।
ब्रांड मोदी का मिथ
इस बार चर्चा अधिक है, वह इसलिए कि इस आम चुनाव के परिणाम ने भाजपा के लिए ब्रांड मोदी का मिथ तोड़ दिया, भाजपा नेताओं के मोदी 'भरोसे' रहने के भ्रम को भंजित कर दिया, तो संघ व भाजपा की ओर से वर्षों की मेहनत से गढ़े गए हिंदुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सनातन, अखंड भारत, श्रेष्ठ भारत, विश्व गुरू आदि रूपकों के चुनावी प्रभाव को मलिन कर दिया। शायद इसलिए जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 400 पार का नारा देने वाली अति आत्मविश्वासी भाजपा को, (जो अपने दम पर सामान्य बहुमत (273) का आंकड़ा भी नहीं छू सकी व 2014 और 2019 से भी पीछे रह गई), पीछे रहने के कारणों का भान कराया, तो कुछेक काठ की हांडी चढ़ाए रखने वालों ने झूठ प्रचारित करना शुरू कर दिया कि संघ भाजपा से खफा है व दोनों में दूरी बढ़ रही है। ऐसा कतई नहीं है, न ऐसा कभी होगा। संघ राजनीति में कभी सक्रिय नहीं रहा है, वह देश में सेवा के माध्यम से जनकल्याण में जुटा रहता है।
डॉ. मोहन भागवत ने नागपुर में सरकार गठन के बाद जून में जब मोदी सरकार के पिछले 10 सालों के कामकाज की सराहना करते हुए क कहा था कि देश की राजनीतिक संस्कृति में सुधार और सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने की जरूरत है, देश के विकास में सबका सहयोग जरूरी है, तो इसका मतलब भाजपा की आलोचना नहीं है, बल्कि सलाहियत है। वर्ष 1925 में स्थापना के समय से ही संघ भारतीयता, हिंदुत्व, सनातन संस्कृति, राष्ट्रीय एकता व अखंडता और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देता रहा है। संघ एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में कार्य करता है, जबकि भाजपा एक राजनीतिक दल के रूप में। संघ की भूमिका भाजपा के वैचारिक मार्गदर्शक की है।
भाजपा का जनाधार बनाने का प्रयास
डॉ. भागवत के कथन को भाजपा की नीतियों या निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को कमजोर करने या नियंत्रित करने के प्रयास के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। हालांकि मोदी काल में संघ से अलग भाजपा का जनाधार बनाने का प्रयास हुआ, इसमें सफलता भी मिली, लेकिन पार्टी एक नेता के इर्दगिर्द नतमस्तक भी होती गई, शायद इसलिए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा एक साक्षात्कार में यह कहने का साहस जुटा पाए कि अब भाजपा जनाधार के स्तर पर इतनी बड़ी हो गई है कि उसे अब संघ की जरूरत नहीं है, इस बयान का भी कतई यह मायने नहीं है कि भाजपा संघ से पृथक हो गई है या संघ का साथ नहीं चाहती है।
हालांकि, वर्ष 2024 के आम चुनाव के नतीजे ने मोदी के आवरण में भाजपा के अपराजेय हो जाने की भाजपाइयों की समझ के बुलबुले को भी फोड़ दिया है, पर अब भाजपा को अच्छे से एहसास हो गया होगा कि संघ व पार्टी संगठन के साथ के बिना पार्टी श्रेष्ठ प्रदर्शन अर्थ समझकर अब भाजपा को सबक लेना चाहिए, समावेशी राजनीति पर अमल करना चाहिए, देश के राजनीतिक चरित्र को समझते हुए जनाधार मजबूत करना चाहिए, शीर्ष नेता के संबोधन में हल्कापन नहीं होना चाहिए और एक चेहरे के भरोसे रहने के बजाय मजबूत सेकेंड लाइन तैयार करनी चाहिए। यह सही है कि संघ अतिशय व्यक्तिवाद को नापसंद करता है और सरसंघचालक मोहन भागवत ने 2014 की जीत के दो महीने के बाद ही कहा भी था कि 'भाजपा को जीत किसी एक व्यक्ति की वजह से नहीं मिली है।
संगठन की पूंजी विचारधारा
इसे किसी व्यक्ति-विशेष की विजय मानना ठीक नहीं है।' मार्गदर्शक के तौर पर यह पार्टी को सावधान करने के लिए कही गई थी। इस चेतावनी के बावजूद भाजपा ब्रॉड नेता के मोहपाश में फंसी और खामियाजा वर्ष 2024 में भुगती। व्यक्ति की लोकप्रियता की एक उम्र होती है, जबकि किसी पार्टी व संगठन की पूंजी विचारधारा है, जो उम्र की सीमा से परे है, वह पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रहती है। भागवत ने चार बातें प्रमुख तौर पर कहीं थीं। लीडर में सेवक का भाव हो, मैं ही में का भाव न हो। विपक्ष वैचारिक प्रतिपक्ष है, विरोधी नहीं है। चुनावों में भाषा को लेकर नैतिकता की मर्यादा हो। मणिपुर में शांति हो। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में एक लेख में सरकार के नीति नियंता और भाजपा की कार्यशैली पर प्रश्न खड़ा किए जाने से और आरएसएस के कार्यकारिणी सदस्य इंद्रेश कुमार द्वारा जयपुर में नेताओं के अहंकार को 240 पर सूई अटकने का कारण बताए जाने से संघ व भाजपा में खटपट को हवा मिली।
गोरखपुर में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भागवत की मुलाकात की खबर ने हवा को और गति दी। जबकि, लगातार तीसरी बार भाजपा ने राजग के रूप में जनादेश हासिल किया है। बेशक भाजपा की सीटें बहुमत का आंकड़ा पार न कर सकीं, इसके बावजूद पार्टी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है, जिसे किसी भी पार्टी द्वारा अगले कुछेक वर्षों में दोहराने की संभावना क्षीण है। ऐसी स्थिति में संघ व भाजपा में किसी खटपट की कोई वजह नहीं बनती है। भाजपा को अपनी स्थिति में सुधार के लिए कहना संघ की नाराजगी नहीं है, बल्कि घर को सुदृद्ध करने के लिए एक मंतव्य है। व्यवहार में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। भाजपा के लिए तो यह स्वॉट एनालिसिस की तरह है। अब भाजपा को अपने अध्यक्ष का चुनाव संघ के साथ सूझबूझ से करना चाहिए, जिनमें पार्टी लगातार चुनावी सफलता हासिल कर सके।
प्रो. नीलम महाजन सिंह: (लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार और विश्लेषक हैं.ये उनके अपने विचार हैं।)