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Exclusive : वरिष्ठ पत्रकार और गांधीवादी विचारक कुमार प्रशांत से हरिभूमि और आईएनएच के प्रधान संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने 'सार्थक संवाद' शो में ख़ास बातचीत । यहां देखें वीडियो-

रायपुर। देश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार और गांधीवादी विचारक कुमार प्रशांत ने का मानना है कि हमारी विदेश नीति हमेशा ही रही है कि हम पीड़ितों के साथ खड़े रहे हैं। अचानक ये कैसे हुआ कि हम आक्रांताओं के साथ खड़े हो गए हैं और उसे कह रहे हैं कि हम राष्ट्र हित में निर्णय ले रहे हैं। तो मैंने पहली बार देखा कि खून में से तेल निकाला जा रहा है। कुमार प्रशांत ने यह बात चुनावी संवाद कार्यक्रम में हरिभूमि - आईएनएच के प्रधान संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी को दिए साक्षात्कार में कही। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश।

■ इस आम चुनाव को कुमार प्रशांत जी किस दृष्टि से देख रहे हैं?

■ बड़े महत्व का चुनाव है, वैसे तो हर चुनाव पूरे महत्व का होता है। जैसा कि आपने उल्लेख किया, जेपी के समय भी चुनाव हुआ था, मैं चुनाव लड़ता भी नहीं हूं लेकिन मैं मानता हूं कि चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। इसमें सिर्फ ये फैसला ही नहीं होता कि कौन सी पार्टी जीत रही है कौन सी हार रही है। ये भी फैसला होता है कि देश किस दिशा में जाएगा। उस दृष्टि से में अभी के चुनाव को देख रहा हूं जो शासन 2014 से चल है, वो देश को अवधारणाएं खड़ी कर देश को दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं।

■ बड़ा विरोधभासी वक्तव्य है आपका। विरोधाभासी इस रूप में है कि तकरीबन तीन दशक बाद देश की जनता ने एक पार्टी को वह जनादेश दिया। एक स्पष्ट जनादेश दिया। एक नेता के प्रति जनता ने भरोसा जताया जिसका नाम नरेंद्र मोदी है। उनके नेतृत्व में पार्टी को ये जीत मिली और दस साल के कार्यकाल के आधार पर वो नेता और पार्टी देश को ये बताने की कोशिश कर रहा है कि सही मायनों में सही दिशा में देश हमारे आने के बाद जा रहा है। उस दिशा में जा रहा है कि हम वापस विश्वगुरु बनने की दिशा में जा रहे हैं, देश का दुनिया में सम्मान बढ़ चुका है। ऐसे समय में कुमार प्रशांत जी कह रहे हैं कि देश गलत दिशा में जा रहा है। देश की तरक्की, वैभव, समृद्धि कुमार प्रशांत जी को इतनी गलत दिख रही है कि आप को खल रही है।

■  ये वक्तव्य अच्छा है, मोदी जी के भाषण में कहीं फिट किया जा सकता है। लेकिन मोदी जी के भाषण जितने अर्थहीन होते हैं उतनी ही अर्थहीन ये अवधारणा है जो आपने रखी। देश जो है वो कभी एक दिन में या दस साल में बड़ा नहीं होता है। एक प्रक्रिया में बड़ा होता है। उस प्रक्रिया में जो लोग शामिल होते हैं, सबकी अपनी अपनी भूमिका होती है। मैंने जब कहा कि देश दूसरी दिशा में जा रहा है या गलत दिशा में जा रहा है ये कहने की कोशिश कर रहा हूं कि जिस संसदीय लोकतंत्र को हमने अपनाया उसकी कमजोरियां भी हमें मालूम, लेकिन एक वही आधार है उस संसदीय लोकतंत्र के जो बुनियादी मायने हैं, उनके खिलाफ जब आप जाने लगे, जब आप खेल ही बदल देना चाहते हैं। ये खेल बना रहे, उसमें अच्छे खिलाड़ी आएंगे बुरे खिलाड़ी आएंगे। लेकिन जब खेल ही बदलने की कोशिश करें तब गलत हो जाएगा। जब आप ये घोषणा करते हो कि 2047 तक हम ही रहेंगे तो आप खेल बदल रहे हो। ये घोषणा करने का अधिकार किसी को नहीं है, खासकर संसदीय लोकतंत्र में। इसीलिए मोदी जो कुछ भी कह रहे हैं या इनकी पार्टी जो कह रही है, उसमें मूल आपत्ति यही है कि तुमको संसदीय लोकतंत्र पर भरोसा नहीं है। हमने देश को विश्व गुरु बना दिया। विश्वगुरु बनने में कोई अभिमान की बात नहीं है। विश्व गुरु किसे कहते हैं? जब लड़ाई थी तो दोनों खेमे साम्यवाद और अमेरिका के दोनों अपने आप के विश्व गुरु मानते थे, वो विश्व गुरु थे क्या? थे तो कहां चले गए। विश्व गुरु नहीं विश्व दोस्त बनने की जरूरत है। और तुम किसी के दोस्त नहीं हो, तुम्हारे जो पड़ोसी देश थे वो भी दोस्त नहीं रह गार हैं। तुम्हारी अपनी नीतियों के कारण। विश्व गुरु बन जाओगे अपने से तो उससे तो जगह नहीं मिलती है।

■ आपके नजर में 4 जून को आने वाले परिणाम का आंकड़ा कैसा रहेगा?

■ इस चुनाव में हवा बदली है, लेकिन उतनी नहीं बदली की पूरी सत्ता बदल जाए। अभी जो सत्ता में है वो कमजोर बहुमत के साथ वापस आएंगे। विपक्ष इस चुनाव में पहले से ज्यादा मजबूत होगा। अभी लोकतंत्र को और भी सफर तय करना है। आगे कुछ अच्छा होने की उम्मीद है।

■ भाजपा एनडीए का विकल्प कौन हो सकता है?

■  वर्तमान चुनाव और परिस्थितियों को देखते हुए मैं राहुल गांधी को अंतिम विकल्प नहीं मानता। विपक्ष में कई लोग हैं जो आगे अच्छा विकल्प हो सकते हैं। विकल्प के बजाय हम गलत को हटाने की ओर ध्यान देना चाहिए। 2014 के चुनाव में मैंने अच्छे बहुमत से आने के कारण मैंने मोदी का स्वागत किया था। डेमोक्रेसी को ही खत्म करने का प्रयास होगा तो जनता इसे जलाकर फेंक देगी। विकल्प जनता ही देगी। राहुल विकल्प बन सकते है बशर्ते वे संविधान के दायरे में रहकर काम करें।

■  विपक्षी एकता कैसी दिखती है?

■  जब भी लोगों को एकमत करने का कदम उठाया तो सब ने साथ दिया। 1977 में विपक्ष को सफलता मिली पर वे इसे ज्यादा दिन तक नहीं चला सके। इस चुनाव में ऐसा मौका मिला पर मॉडल नहीं बना सके। इतिहास हमेशा इसे बनाता नही। देश की जनता को इसका मॉडल बनाना पड़ता है। 2024 में बहुत उम्मीद है। राजनीति में भाजपा ज्यादा कंफ्यूज है। 400 से शुरू कर अब कुछ नहीं कह रही है, लेकिन विपक्ष अपनी संख्या बढ़ाते जा रही है।

 

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