who was Karpoori Thakur: बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा की गई है। दो बार बिहार के मुख्यमंत्री एक बार उप मुख्यमंत्री रहे। इसके साथ ही बिहार के शिक्षा मंत्री के तौर पर भी अपनी सेवाएं दी।  एक साधारण नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर ने भारत की आजादी से लेकर सामाजिक बदलाव तक में एक बेहद अहम भूमिका निभाई। आईए जानते हैं कौन हैं राजनीतिक और सामाजिक पुरोधा कर्पूरी ठाकुर: 

कई अलग अलग भूमिकाओं में दिखे कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ठाकुर को आज बिहार समेत पूरे देश में सामाजिक न्याय का प्रतीक माना जाता है। कर्पूरी ठाकुर बिहार की ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, समाज सुधारक और राजनेता की कई अलग अलग भूमिका निभाई। आजादी की लड़ाई में उन्होंने पहले आचार्य नरेंद्र देव का साथ दिया। बाद में महात्मा गांधी के  असहयोग आंदोलन से जुड़े और जेल भी गए। जेल से लौटने के बाद बिहार में  छूआछूत जैसे सामाजिक भेदभाव को मिटाने की मुहीम छेड़ दी। 

कर्पूरी ठाकुर उस दौरे के राजनेता थे, जब पूरे देश में कांग्रेस का बोलबाला था।

दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री रहे
कर्पूरी ठाकुर सामाजिक आंदाेलन के जरिए राजनीति में आए। एक बार शिक्षा मंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री रहने के दौरान पिछड़ों और वंचितों के लिए लगन से काम किया और एक जननायक बनकर उभरे।  बिहार में लोग उन्हें जननायक कर्पूरी ठाकुर कहकर ही बुलाते हैं।अब केंद्र सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की घोषणा की है। 

कांग्रेस के खिलाफ फूंका बगावत का बिगुल
कर्पूरी ठाकुर उस दौरे के राजनेता थे, जब पूरे देश में कांग्रेस का बोलबाला था। उस दौरान कर्पूरी ठाकुर ने कांग्रेस के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया। वह ताउम्र कांग्रेस के खिलाफ रहे। कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ खुलकर बोलते रहे। 1975 से 1977 के बीच इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान कर्पूरी ठाकुर को गिरफ्तार करवाने की पूरी कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाईं। 

बिहार में सामाजिक भेदभाव को खत्म करने के लिए कर्पूरी ठाकुर को याद किया जाता है।

पिछड़ों-वंचितों के सबसे बड़े नेता 
बिहार में सामाजिक भेदभाव को खत्म करने के लिए कर्पूरी ठाकुर को याद किया जाता है। कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ बिहार में वंचित और दबे कुचले वर्ग के सबसे बड़े नेता के तौर पर पहचान बनाई बल्कि अपने विचारों को आगे ले जाने वाली नई पौध भी तैयार की। आज बिहार में दलितों और पिछड़ों के नेता के तौर पर पहचान रखने वाले लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने कर्पूरी ठाकुर से ही राजनीति का ककहरा सीखा है। बिहार में पिछड़े-वंचितों के लिए काम करने वाले इन दोनों नेताओं के गुरु कर्पूरी ठाकुर ही हैं।  मौजूदा वक्त में भी अगर बिहार में पिछड़ी जाति के नेता का नाम लिया जाता है तो लिस्ट में सबसे ऊपर कर्पूरी ठाकुर ही होते हैं। 

एक साल तक रहे बिहार के शिक्षा मंत्री 
कर्पूरी ठाकुर ने एक साल तक बिहार के शिक्षा मंत्री के तौर पर अपनी सेवाएं  दी। इस दौरान गरीबों, पिछड़ों और वंचितों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए कई कदम उठाए। बिहार में मैट्रिक तक की पढ़ाई फ्री कर दी। बच्चों को उनकी अपनी भाषा में पढ़ाने को बढ़ावा दिया। राज्य के सभी विभागों में हिंदी भाषा को अनिवार्य कर दिया। उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिया। 

1977 में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री बनने के बाद ओबीसी आरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए।

आरक्षण देने के वजह से सीएम की कुर्सी गई
1977 में, जब  कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने उन्होंने ओबीसी आरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए। स्कूलों और कॉलेजों में ओबीसी आरक्षण प्रभावी कर दिया। मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया। इससे सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ मिला। इन फैसलों की वजह से उन्हें अपनी सत्ता दो साल बाद ही गंवानी पड़ी। हालांकि असमानता को कम करने के लिए उठाए गए कदमों के कारण "जननायक" के रूप में मशहूर हो गए। वह एक ऐसे नेता थे जिन्होंने मंडल कमीशन से पहले पिछड़े वर्ग के नेताओं को आरक्षण दिया। इससे पहले वह 1970 में भी मुख्यमंत्री बने थे। 

मरते दम तक रहे विधायक
कर्पूरी ठाकुर ने पहली बार विधायक का चुनाव 1952 में लड़ा था। उन्होंने पहली बार सोनपुर विधानसभा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। कर्पूरी ठाकुर ने समय के साथ कई बार पार्टी बदली। उन्होंने अपने राजनीतिक करियर के दौरान भारतीय सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट आचार्य प्रताप नारायण की जनता पार्टी, जनता पार्टी, लोकदल और राष्ट्रीय जनता पार्टी जैसी कई पार्टियों से चुनाव लड़े। हालांकि वह किसी भी पार्टी से चुनाव लड़ते उनकी जीत पक्की थी। वह अपने मरते दम तक विधायक रहे।