Logo
Opinion: कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2010-11 में देशभर में आर्थिक सामाजिक और जातिगत गणना करवाई थी लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए थे।

Opinion: भारत में जातिगत जनगणना की मांग दशकों पुरानी है। इसका मक़सद अलग-अलग जातियों की संख्या के आधार पर उन्हें सरकारी नौकरी में आरक्षण देना और जरूरतमंदों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाना बताया जाता है। माना जाता है कि भाजपा को इस तरह की जनगणना से डर ये है कि इससे अगड़ी जातियों के उसके वोटर नाराज हो सकते हैं और पार्टी के परंपरागत हिन्दू वोट बैंक इससे बिखर सकता है।

वहीं विपक्ष सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाकर भाजपा पर दबाव बनाने और दलित, पिछड़े वोट को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहा है। इससे पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2010-11 में देशभर में आर्थिक सामाजिक और जातिगत गणना करवाई थी लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए थे। इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई, लेकिन इसके आंकड़े कभी सार्वजानिक नहीं किए गए।

यह भी पढ़ें: Opinion: जातिवादी राजनीति के भंवर में न फंसे देश, संवेदनशील मुदा

1980 के दशक में उठी थी मांग
बता दें, जातियों की जनसंख्या के मुताबिक़ आरक्षण की मांग सबसे पहले 1980 के दशक में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने की थी। यूपी की समाजवादी पार्टी भी लगातार जातिगत जनगणना की मांग करती रही है। दक्षिण भारत की कई पार्टियां इस तरह की जनगणना की मांग करती रही है। बिहार में पिछले वर्ष 2023 में जाति जनगणना कराई गई थी। गौरतलब है कि जातिगत जनगणना की बात आते ही अक्सर बहुत सी चिंताएं और सवाल भी उठ खड़े होते हैं। इनमें से एक बड़ी चिंता ये है कि इसके आंकड़ों के आधार पर देशभर में आरक्षण की नई शुरू हो जाएगी। पार्टी बड़े नेताओं ने हाल के समय में जातिगत जनगणना के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया है।

जातिगत जनगणना के साथ एक नारा भी लगाया जाता है 'जिसकी जितनी संख्या भारी.. उसकी उत्तनी हिस्सेदारी'। राहुल गांधी ने 2011 के जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने और पिछड़े वर्ग, दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण देने की मांग भी की थी। दरअसल जातिगत संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग कर विपक्ष दलितों और पिछड़ों के बड़े वोट को अपने पक्ष में लाना चाहता है ताकि भाजपा के कथित हिन्दू वोट बैंक को भी कमजोर किया जा सके।

भाजपा जातीय गणना के विरुद्ध
दूसरी तरफ भाजपा नहीं चाहती है कि जातिगत जनगणना हो। भाजपा की नीति समावेशी समाज की रही है। संघ भी जातिवाद का विरोध करता रहा है, संघ का लक्ष्य समाज से जातिवाद को अंत करने का है। भाजपा को लगता है कि जाति गणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा, जिससे अंततः हिंदू समाज को एक करने का लक्ष्य डिरेल होगा। हिंदुत्व का एजेंडा ही जातियों में बंटे हिंदू समाज को एक करने का है। खैर, विपक्ष जाति जनगणना को एक बड़ी राजनीति के तौर पर देखती है।

जनगणना कराने से बेरोजगारी, एनएसएसओ के आंकड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसानों की आत्महत्या, कोविड में हुए जानमाल का नुक़सान, नोटबंदी और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़े असर के वास्तविक आंकड़े भी बाहर आ जाएंगे। वर्ष 2021 की जनगणना अगर समय पर हो जाती तो इससे मिलने वाले आंकड़े साल 2011-21 के बीच के होते और इसमें ज्यादातर कार्यकाल मोदी सरकार का ही है। यू कहें कि जनगणना के मुद्दे पर भाजपा भंवर में है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत समेत भाजपा के कई नेता समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा की बात करते हैं।

संघ ने माना, मामला संवेदनशील
हाल ही में केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तीन दिनों तक मंधन बैठक चली। इस बैठक में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि ये संवदेनशील मामला है और इसका इस्तेमाल राजनीतिक वा चुनावी उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इसका इस्तेमाल पिछड़ रहे समुदाय और जातियों के कल्याण के लिए होना चाहिए। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उप वर्गीकरण की दिशा में बिना किसी सर्वसम्मति के कोई क़दम नहीं उठाया जाना चाहिए। 

आसान काम नहीं होगा
आरएसएस का बयान ऐसे समय में आया है, जब विपक्षी इंडिया गठबंधन ने जाति आधारित जनगणना को अपना प्रमुख मुद्दा बना लिया है। अभी तक भाजपा ने खुले तौर पर जाति आधारित जनगणना का विरोध नहीं किया है लेकिन उसने इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं की है। इसलिए वो खुलकर इसका न तो समर्थन कर पा रही है और न विरोध। जबकि विपक्ष इस बात को समझता है। और इसलिए उसने जातिगत जनगणना की मांग की है ताकि आने वाले चुनावों में इसका फ़ायदा उठाया जा सके। विपक्षी दलों को लगता है कि वो जातिगत जनगणना को बड़ा मुद्दा बना लेंगे लेकिन ये आसान काम नहीं होगा, इसके लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी। क्योंकि जातिगत समीकरण को तोड़ने के लिए अब बहुत सारे विकल्प हैं जैसे; ग़रीबों के लिए कल्याणकारी योजनाएं। इस तरह से उनको अपने पक्ष में करना ज्यादा आसान है। आखिर क्या वजह है कि पूर्व में कांग्रेस की सरकार ने अपने देश की सामाजिक सच्चाई को जानने से हमेशा मुंह चुराया और आज भाजपा नीत राजग सरकार पर कांग्रेस जाति गणना के लिए दबाव बना रही है?

जातिवार जनगणना महत्वपूर्ण
1951 से 2011 तक की हर जनगणना में संवैधानिक बाध्यता के चलते अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गिनती तो हुई है, पर किसी दूसरी जाति की नहीं। आखिर क्या वजह है कि भारत सरकार ने देश की सामाजिक सच्चाई को जानने से हमेशा मुंह चुराया? जो समाज सर्वसमावेशी नहीं होगा, उस पाखंड से भरे खंड-खंड समाज के जरिए अखंड भारत की दावेदारी हमेशा खोखली और राष्ट्र-निर्माण की संकल्पना अधूरी होगी। जातिवार जनगणना से अलग-अलग क्षेत्रों में ओवर-रीप्रेजेंटेड और अंडर-रीप्रेजेंटेड लोगों का एक वास्तविक डेटा सामने आ सकता है, जिनके आधार पर कल्याणकारी योजनाओं और संविधानसम्मत सकारात्मक सक्रियता की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सके। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि जा के लिए जाति गणना की मांग न उठे।

ये सत्य है कि भाजपा ने भी कभी जातिगत जनगणना का खुल कर विरोध नहीं किया और न खुद को इसका विरोधी बताया। लेकिन अलग-अलग कारणों से वे इसे कराने से बचती रही है। सवाल अहम ये है कि क्या अब संघ के बयान से भाजपा के रुख में बदलाव आ सकता है। ये भी संभव है कि अगली जनगणना से पहले जातिगत जनगणना पर सरकार के रुख में कोई बदलाव आ जाए। फिलहाल जातीय जनगणना को लेकर राजनैतिक बहस तेज है। देखना है ऊंट किस करवट बैठेगा।
रवि शंकर: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)

यह भी पढ़ें:  Opinion: ध्वस्त किया जा सकता है जनतंत्र का 'स्टॉक मार्केट, आवाज सुननी ही पड़ेगी

5379487