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Opinion: एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ओर से हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक 16 वर्तमान सांसद और 135 विधायकों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामले दर्ज हैं। यही नहीं, इनमें दो सांसदों और 14 विधायकों पर दुष्कर्म के मामले चल रहे हैं।

Opinion: पश्चिम बंगाल के रेप-हत्याकांड और महाराष्ट्र की बदलापुर छात्रा यौन हिंसा की घटना के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराधों में सांसदों व विधायकों के  लिप्त होने संबंधी एडीआर की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। यह देश और जनता के लिए आश्चर्य में डालने वाली रिपोर्ट है कि ऐसे विधायक और सांसदों की संख्या निरंतर बढ़ रही है, जो गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि से जुड़े हैं। हैरानी इस पर भी है कि सभी राजनीतिक दल इस पृष्ठभूमि के लोगों को उम्मीदवार बना रहे हैं और वे जीत भी रहे हैं।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ओर से हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक 16 वर्तमान सांसद और 135 विधायकों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामले दर्ज हैं। यही नहीं, इनमें दो सांसदों और 14 विधायकों पर दुष्कर्म के मामले चल रहे हैं। इन 151 सांसद और विधायकों ने अपने चुनावी शपथ-पत्रों में महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों की जानकारी दी है। एडीआर ने 2019 और 2024 के बीच चुनावों के दौरान चुनाव आयोग को सौंपे गए वर्तमान सांसद और विधायकों के 4,809 हलफनामों में से ये तथ्यात्मक दस्तावेजी प्रमाण निकाले हैं।

पश्चिम बंगाल में ज्यादा मामले
पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 25 सांसद व विधायक महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित आरोपों का सामना कर रहे हैं। इसी प्रकृति के मामलों में ओडिसा 17 सांसद व विधायकों के साथ दूसरे पायदान पर खड़ा है। इनमें से 16 वर्तमान सांसद और विधायक ऐसे हैं, जिन्होंने आईपीसी की धारा 376 के तहत दुष्कर्म से संबंधित मामले घोषित किए हैं। ऐसे मामलों में न्यूनतम 10 साल की सजा का प्रावधान है और इसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार ऐसे सर्वाधिक मामले भाजपा प्रतिनिधियों के हैं। भाजपा के 54 सांसदों और विधायकों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध दर्ज हैं। कांग्रेस के 23 और तेलगु देशम पार्टी के 17 सांसदों और विधायकों पर इसी प्रकृति के मामले हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के पांच-पांच मौजूदा विधायकों पर दुष्कर्म के आरोप हैं।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को टिकट देने से बच नहीं रहे हैं। कम से कम इन दलों को दुष्कर्म और हत्या जैसे गंभीर मामलों से जुड़े व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से बचना चाहिए। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इस परिप्रेक्ष्य में कानूनी विसंगतियों को दूर करने के उपाय करती रहा है। न्यायालय ने 10 जुलाई 2013 को दिए एक फैसले के अनुसार किसी आपराधिक मामले में 2 वर्ष की सजा पाए सांसद, विधायक व अन्य जनप्रतिनिधियों के पद पर बने रहने के अधिकार को समाप्त कर दिया था। जिस तारीख से सजा सुनाई गई थी, उसी दिन से माननीयों की सदस्यता निरस्त मान ली गई थी। अदालत ने इस फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को रद कर दिया था।

जनप्रतिनिधित्व कानून
यह धारा दागी नेताओं को मुकदमे लंबित रहते हुए भी पद पर बने रहने की छूट देती थी, यह फैसला 2006 में दाखिल वकील लिली थॉमस की याचिका पर दिया गया था। किंतु इस फैसले के विरुद्ध केंद्र सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से संशोधन बिल लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। इस बिल में धारा 8 की उपधारा 4 में एक प्रावधान जोड़ा, ताकि दागी नेताओं की कुर्सी बचे रहे और वे सदन की कार्यवाही में भागीदारी करते रहें। किंतु अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि उपधारा 4 भेदभावपूर्ण है, क्योंकि यह दोषी ठहराये गए आमजन को तो चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन जनप्रतिनिधि को सुरक्षा मुहैया कराती है।

विरोधाभासी धारा 8/4
याद रहे, राहुल गांधी की लोकसभा सदस्य की सदस्यता भी इसी कानून के आधार पर समाप्त की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने दागियों का महत्व राजनीति से समाप्त करने की दृष्टि से महज जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8/4 को खारिज किया था। यह एक ऐसी विरोधाभासी धारा थी, जो पक्षपात बरतते हुए दोषियों को दोहरे दृष्टिकोण से परिभाषित करती थी। दरअसल, जनप्रतिनिधि कानून की जिस धारा 8/4 को न्यायालय ने विलोपित किया था, उसकी प्रतिच्छाया में अब तक प्राथमिकी में नामजद और सजायाफ्ताओं को निर्वाचन में भागीदारी के सभी अधिकार प्राप्त थे।

समानता का अधिकार
हालांकि जनप्रतिनिधि कानून के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोषी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिधि बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदंड समानता के अधिकार का उल्लंघन है। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थॉमस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विसंगति को शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में प्रश्नांकित करते हुए केंद्र से जवाब तलब भी किया था।

केंद्र ने शपथ-पत्र देकर तर्क गढ़ा था कि कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है, तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है।
सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि यह उन मतदाताओं के संवैधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्स अपराध बहाली को तरजीह दे रही थी। अन्यथा सरकार क्या यह नहीं जानती कि जो प्रतिनिधि जेल में कैद है, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है? क्या सरकार इस संवैधानिक व्यवस्था से अनभिज्ञ है कि किसी प्रतिनिधि की मृत्यु होने, इस्तीफा देने अथवा सदस्यता खत्म होने पर छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवैधानिक अनिवार्यता है?

पदमुक्त करने की जरूरत
इस स्थिति में न तो कोई निर्वाचन क्षेत्र नेतृत्वविहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है? फिर क्या महज सरकार बनाए रखने के लिए अपराधियों का साथ लिया जाए? ऐसी दोषपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निष्ठा की बजाय सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है। जरूरत महिलाओं के खिलाफ अपराध में शामिल जनप्रतिनिधियों को पद से मुक्त व कानून के कटघरे में खड़ा करने की है।
प्रमोद भार्गव:  (लेखक वरिष्ठ  स्तंभकार हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)

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