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नारायणपुर जिले के अंदरुनी गांवों में मुर्गा बाजार का स्वरूप बदल गया है। मनोरंजन की आड़ में अब यहां ग्रामीण जुआ खेल रहे हैं । 

नारायणपुर । बस्तर के नक्सल प्रभावित नारायणपुर जिले के अंदरुनी गांवों में मुर्गा बाजार का स्वरूप बदल गया है। मनोरंजन की आड़ में अब यहां ग्रामीण जुआ खेल रहे हैं । इन दिनों तेजी से जुए के अड्डे में तब्दील हो रहे मुर्गा बाजार में स्कूल को छोड़कर बच्चे मुर्गा बाजार पहुंच रहे हैं, जहां धारदार काती को थाम कर बच्चे अपनी जान की बाजी लगाने से नहीं चूक रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई को लेकर सपना देख रहे परिजनों की माने तो मुर्गा बाजार को लेकर प्रशासन को सख्ती बरतने की जरुरत हैं। 

मुर्गा बाजार की लत लगने से कई परिजनों का सपना चकनाचूर होकर टूट गया हैं। मुर्गा बाजार में लाखों रुपए का दांव लग रहा है, जिसकी वजह से कई परिवार बर्बादी के कगार में भी पहुंचे गए हैं। मुर्गा लड़ाई के दौरान कतकार को अक्सर काती यानी धारदात छोटा चाकू लगने का डर बना रहता हैं। कतकार कई बार बहुत ही खतरनाक तरीके से घायल भी हो जाते हैं।

10 रुपये से लेकर लाखों की लगती है दांव 

मुर्गा के अखाड़े मे दांव आजमाने वाले लोगों के अपने नियम होते हैं। जो मुर्गों के संघर्ष मे अधिक दांव लगाता है, उसे मुर्गा अखाड़ा मैदान में ही विशेष जगह दी जाती है। 

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खतरनाक बनाने खिलाते हैं जड़ी बूटी दवाई 

 मुर्गा बाजार के प्रेमी लड़ाकू मुर्गा को बड़े जतन से ऐसे पालता है जैसे कि वह परिवार का कोई सदस्य हो। लड़ाई में जीतने के लिए मुर्गे को खतरनाक और हिंसक बनाने के लिए जंगलों में मिलने वाली जड़ी बूटी खिलाकर मुर्गा को फिट रखते हैं।

आदिवासी किसी भी शर्त पर छोड़ना नहीं चाहते

प्राचीनकाल से ही मुर्गा लड़ाई आदिवासियों के मनोरंजन का एक हिस्सा रहा है। जिसे स्थानीय आदिवासी किसी भी शर्त पर छोड़ना नहीं चाहते हैं। हालांकि मुर्गा लड़ाई का कोई खास सीजन नहीं है पर यहां गांवों में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों में मुर्गे लड़ाई की महफिल सजने लगी है। जहां एक मुर्गे में लाखों रुपये तक की बोली लगती है। इसका क्रेज इतना अधिक है कि मुर्गा लड़वाने के शौकीन लोगों की प्रतिष्ठा तक मुर्गे से जुड़ी होती है। अगर उसे कोई मुर्गा पसंद आ जाती है, तो दस हजार रु से एक लाख रुपए तक में भी मुर्गा खरीद लेता है।

मौत के साथ खत्म होता है खेल

मुर्गों की लड़ाई के दौरान मुर्गे के पंजों में हथियार बांधकर आपस में लड़ाया जाता है। यह लड़ाई तभी खत्म होती है, जब दो मुर्गों में से एक की मौत हो जाती है। मुर्गों के बीच मौत का यह खेल देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ती है। कई बार तो मुर्गा लड़ाई के बीच खिलाड़ियों में भारी विवाद होता हैं बात मारपीट तक पहुंच जाती हैं।

दूसरे जिले से आ रहे जुआ खेलने

आज की परिस्थिति में मुर्गा बाजार हाईटेक दौर से गुजर रहा है। दांव में पैसा लगाना ही मकसद रह गया है। कुछ समय पूर्व मुर्गा बाजार ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित था, लेकिन अब शहरीकारण होने चलते बाकायदा दूसरे जिले से आमंत्रण देकर बुलाया जाता है, जिसमें लाखों रुपए का दांव लगाया जाता हैं।

समाज के लिए ठीक नहीं

बस्तर संस्कृति के जानकार सदाराम राम ठाकुर, संरक्षक सर्व आदिवासी समाज नारायणपुर ने बताया कि, वास्तव में मुर्गा लड़ाई बस्तर में मनोरंजन् लिए पारंपरिक एक खेल रहा है पर इसका स्वरूप अब पारंपरिक नहीं रह गया है। शहरीकरण के चलते यह जुए के रूप में बदलते जा रहा है।

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