अंगेश हिरवानी- नगरी। सिहावा के श्रृंगी ऋषि पर्वत के नीचे महानदी के तट पर छिपलीपारा देऊरपारा कर्णेश्वर धाम महानदी और बालका नदी का संगम है। माघ पूर्णिमा के अवसर पर यहां हजारों श्रद्धालु श्रद्धा और आस्था की डुबकी लगाते हैं। कर्णेश्वर धाम में एक प्राचीन अमृत कुंड है। किवदंती के अनुसार इस कुंड के जल में स्नान करने और वहां के मिट्टी को लेप करने से कोढ़ जैसे असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं।
अमृत कुंड से लगे सरोवर मोती तालाब को राजा की दो बेटियों सोनई और रुपई के नाम से जाना जाता है। सोनई-रूपई कांकेर के राजा धर्मदेव की बेटियां थी। मंदिर परिसर में विविध देवी-देवताओं की प्रतिमा है और सोमवंशी राजाओं का विजय स्तंभ है। माघ पूर्णिमा पर हजारों श्रद्धालु बालका और महानदी के संगम में आस्था और श्रद्धा की डुबकी लगाते हैं।
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भगवान परशुराम की तपोस्थली है महेंद्र गिरी पर्वत माला
भारत को कृषि प्रधान देश के साथ-साथ तीर्थ का देश कहा जाता है। यहां उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम में चारों धाम हैं। वहीं छोटे-छोटे तीर्थ स्थान हैं जो पौराणिक इतिहास से जुड़ा हुआ है। कर्णेश्वर धाम सिहावा का नाम भी उन्ही तीर्थों में से एक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, महेंद्र गिरी पर्वत माला महर्षि भगवान परशुराम जी का तपस्या स्थल है। परशुराम जी के आराध्य भगवान शंकर जी ने महाभारत काल में राजकुमारी कुंती को वरदान दिया था कि, वे जिस भी देवता की अराधना करेंगी उन्हीं देवता के अंश उन्हें पुत्र रूप में प्राप्त होंगे।
यहीं पर सूर्यपूत्र कर्ण को दी थी शिक्षा
तब कौतूहल वश उन्होंने सूर्यदेव की अराधना की थी। सूर्यदेव प्रकट हुए और उन्हें गर्भवती होने का वरदान देकर चले गए। कुंती के उसी पुत्र बादमें दानवीर कर्ण के रूप में विख्यात हुए। कहा जाता है कि, महेंद्रगिरी पर्वत में ही भगवान परशुराम ने कर्ण को शिक्षा दी थी। भगवान परशुराम के ईष्टदेव शिव जी हैं तो कर्ण के ईष्ट भी शिव जी ही हुए। इसलिए शिव जी का एक नाम कर्णेश्वर भी है।
कर्णेश्वर महादेव मंदिर की ये है कहानी
पुरातत्व वक्ताओं के शोध और कर्णेश्वर महादेव मंदिर में शिलालेख के अनुसार सोमवंशी राजाओं के पूर्वज जगन्नाथ पुरी उड़ीसा के मूल निवासी थे। सिहावा दर्शन नामक बुक में उल्लेख के अनुसार बताया गया है कि, सन् 1130 में राज्य विस्तार में राजासिंह राज नगरी आए। उनके बेटे बाघराज सन् 1150 से 1170 और बाघराज के बेटे भोपा देव 1170 से 1190 और भोपदेव के बेटे राजा कर्णदेव हुए। सोमवंशी राजा कर्णदेव अपने वंश की कृति को अमर रखने के लिए कर्णेश्वर देव हद में छह मंदिर का निर्माण कराया जिसमें एक अपने भाई कृष्ण राज के नाम पर और दूसरा मंदिर अपनी पत्नी भोपाल देवी के नाम पर बनवाया।
महादेव का ही दूसरा नाम कर्णेश्वर
शिलालेख के अनुसार, राजा करण राज ने त्रिनेत्र धारी भगवान शिव की आराधना कर प्रतिष्ठित किया। सोमवंशी राजा धर्मनिष्ठ और भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। राजा कर्णदेव ने ही मंदिर का निर्माण करवाया और उस मन्दिर में शिव लिंग स्थापित की। इस कारण भी इस स्थान को कर्णेश्वर कहा जाता है जिसे लोग आज कर्णेश्वर धाम देवुर पारा सिहावा के नाम से जानते हैं।
मंदिर परिसर के अमृत कुंड की ये है कहानी
कर्णेश्वर मंदिर के पास एक अमृत कुंड है जो अब पूर्ण रूप से बरसात की मिट्टी और पत्थरों से पट चुका है। किवदंती है कि, सोमवंशी राजा कर्णदेव कोड ग्रस्त थे और वे अमृत कुंड के कीचड़ से ठीक हुए थे। राजा के सात बेटे थे, जिसमें छह राजकुमार थे और एक दासी पुत्र था।
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कुलदेवी का आदेश
राजा अपने राज्य को उस बेटे को सौंपना चाहता था जो राज्य का सही संचालन कर सके। राजगद्दी देने के लिए योग्य पुत्र का चयन करने में राजा को कठिनाई हो रही थी। तब उसने मार्गदर्शन के लिए अपनी कुलदेवी मां महामाया की आराधना की। तब मां महामाया ने उन्हें मंदिर में सातों बेटों के साथ दर्शन के लिए आने को कहा। माता ने कहा कि, मंदिर के रास्ते पर तुम अपना एक अंगोछा गिरा देना फिर तुम्हारा जो भी पुत्र उस अंगोछे को उठाकर तुम्हें दे उसे ही राजा बनाना।
दासी पुत्र को बनाया राजा
अगली सुबह राजा ने ठीक ऐसा ही किया। लेकिन उसके छह बेटों ने उस अंगोछे को नहीं उठाया। दासी पुत्र ने अंगोछा उठाकर राजा को दिया। कुलदेवी के दर्शन के बाद सभी वापस महल लौट आए और राजा ने दासी पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। अगले दिन उसने दासी पुत्र का राजतिलक भी कर दिया। इससे राजा का बड़ा बेटा क्रोधित हो गया और अपने छोटे भाई (दासी पुत्र) की हत्या करने के लिए देर रात तलवार लेकर उसके कक्ष में जा पहुंचा। इससे मां महामाया क्रोधित हो गई और उनके कोप से राजा का बड़ा बेटा कोढ़ग्रस्त हो गया।
कोढ़ग्रस्त हुआ राजा का बड़ा बेटा
कोढ़ग्रस्त राजकुमार अपने एक कुत्ते के साथ पश्चाताप करने के लिए तपोभूमि सिहावा के कर्णेश्वर मंदिर पहुंचा। देवपुर ग्राम के पास वह कुटिया बनाकर रहने लगा। उसके साथ रहते-रहते उसका कुत्ता भी कोढ़ग्रस्त हो गया। एक दिन कोढ़ ग्रस्त राजकुमार महानदी के तट पर टहल रहे था। तब उनका कुत्ता एक कीचड़ युक्त गड्ढे में लोटने लगा और लोटकर अपने मालिक राजकुमार के पास जाकर अपने शरीर को फटकार लगाया जिसमें कुछ कीचड़ राजकुमार के शरीर में पड़ा। जिस-जिस अंग पर कीचड़ पड़ा उस जगह का जख्म तुरंत ठीक हो गया। जबकि कुत्ते का पूरा रोग ठीक हो गया।
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कुंड के कीचड़ से ठीक हुआ राजकुमार का रोग
उसे देखकर राजकुमार ने उस कीचड़ में जाकर अपने पूरे शरीर में कीचड़ का लेप लगा लिया, जिससे राजकुमार के पूरे शरीर का कोढ़ जख्म पूरी तरह से ठीक हो गया। इस तरह राजकुमार के हृदय में श्रद्धा जाग गई और उसने मंदिर का निर्माण शुरू करवाया और उस कीचड़ युक्त गड्ढे का नाम अमृत कुंड दिया। बादमें उस कुंड को लोहे की छड़ों से सात परतों से ढंक दिया गया जो मिट्टी, पत्थरों और बरसात के पानी से पूरी तरह से ढंक चुका है। लेकिन कर्णेश्वर धाम ट्रस्ट ने पत्थर से एक छोटा कुंड नुमा स्मारक बना दिया है। जहां आज भी कोढ़ रोग से ग्रसित लोग यहां आते हैं और पूजा-पाठ कर यहां से मिट्टी ले जाते हैं।
महानदी के त्रिवेणी संगम में स्नान का बड़ा महत्व
कर्णेश्वर मंदिर के पास ही महानदी का संगम स्थल है। जिसे लोग त्रिवेणी संगम मानते हैं और माघ पूर्णिमा के दिन हजारों साधु-संतों के साथ लाखों श्रद्धालु ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करते हैं। महानदी के उद्गम कथा में प्रबुद्ध जनों के अलग-अलग मत हैं। जिनमें से एक मत यह है कि, महानदी, महर्षि श्रृंगी ऋषि के कमंडल से निकलकर फरसिया ग्राम के जंगल तक गई और श्रृंगी ऋषि के आह्वान पर पुनः वापस होकर दक्षिण-पश्चिम होते हुए बंगाल की खाड़ी तक गई।