Mewar: मेवाड़ के पूर्व राजपरिवार के सदस्य स्वर्गीय अरविंद सिंह मेवाड़ के निधन के बाद उनके बेटे डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ को बुधवार, 2 अप्रैल को गद्दी पर बैठाया गया। कुलगुरु डॉ. वागीश कुमार गोस्वामी ने मंत्रोच्चारण और शंखनाद से कार्यक्रम की रश्म निभाई। राज्याभिषेक का कार्यक्रम उदयपुर सिटी पैलेस में किया गया।
#WATCH | Udaipur, Rajasthan: After his coronation, Lakshyaraj Singh Mewar says, "Mewar has always walked on the path of service... I have been asked to serve how my father and ancestors have. I will strive to perform my duties as per expectations... My father is the reason why… https://t.co/i0bsRr8RtC pic.twitter.com/9PQvf4xcWm
— ANI (@ANI) April 2, 2025
अपने राज्याभिषेक के बाद लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि मेवाड़ हमेशा सेवा के मार्ग पर चलता रहा है। मुझे मेरे पिता और पूर्वजों की तरह सेवा करने के लिए कहा गया है। मैं अपेक्षाओं के अनुरूप अपने कर्तव्यों का पालन करने का प्रयास करूंगा। मेरे पिता की वजह से ही उदयपुर एक विवाह स्थल के रूप में विकसित हुआ है। मेरा प्रयास होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रहे और अपनी संस्कृति से जुड़ी रहे।
#WATCH | Udaipur, Rajasthan: The coronation of Lakshyaraj Singh Mewar, son of late Arvind Singh Mewar- a member of the erstwhile royal family of Mewar, performed in Udaipur City Palace. pic.twitter.com/vGmKhMHBvs
— ANI (@ANI) April 2, 2025
एकलिंगजी मंदिर में करेंगे दर्शन
लक्ष्यराज सिंह ने गद्दी की पूजा-अर्चना कर विराजमान होने के बाद श्रीएकलिंग नाथजी की तस्वीर पर फूल चढ़ाया और आशीर्वाद लिया। इसके बाद धूणी दर्शन किए। अश्व पूजन भी किया। इसके बाद एकलिंगजी मंदिर में दर्शन के लिए जाएंगे। भगवान जगदीश मंदिर में दर्शन के बाद सभी रस्म पूरी होगी।
1500 साल पुरानी परंपरा है अश्वपूजन
राजपरिवार में अश्वपूजा का काफी महत्व है। मान्यता है कि अश्व को स्वामी भक्ति का प्रतीक माना जाता है। क्योंकि युद्ध के समय अश्व भी अपने राजा को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक, जिसने हल्दीघाटी युद्ध में घायल होकर भी महाराणा प्रताप को युद्ध भूमि से सुरक्षित बाहर निकाला था। तब से लेकर आज तक मेवाड़ का पूर्व राजपरिवार अश्व पूजन करता है। अश्वपूजन की परंपरा करीब 1500 साल पुरानी है।